Sunday, October 16, 2011

सिर्फ एक बार.....


आओ..
बैठो..
देखो..
झांको भीतर इस मन के...
यहां ताप है,महक है...
इंतज़ार है..
एक बार
सिर्फ एक बार..
इतिहास के बदलते आवर्तन में...
ठहरे हुए इस वक्त को..
इतिहास बनने दो..

2 comments:

Madhavi Sharma Guleri said...

बहुत अच्छे! मुस्कराती रहो और लिखती रहो.. दोनों ही काम बंद नहीं पड़ें.
बाकी सब (comprehend at your convenience) गया तेल लेने :)

डॉ .अनुराग said...

तुम्हे पढ़कर याद आया ..........मोह ,जरा गोंद बढ़ाना ?कई चिट्ठिया खुली पड़ी है /छल ,मुझे अपनी छन्नी दे दो /बहुत घोल मठ्ठा हुआ /निर्लज्जता , मुझको धीरज दोगी अपना /ऐ थक मकाहट सुनो मुझे घर छोड़ दोगी जरा /शायद वहां खाली डब्बो में थोड़ी सी बची पड़ी हूँ अब भी /मै अपने पास ........याद नहीं किसकी है शायद "अनामिका" की .उनका बीजाक्षर पढना ......