Monday, July 28, 2014

दहशत भरी ज़िंदगी..


एक डर ये भी....

एक तो विकासशील देश का तमगा और उस पर दिन ब दिन घटते नैतिक मूल्यों के साथ ज़ीरो जेंडर सेंस्टिविटी, आज यही हमारे समाज की पहचान है। हम उसी पितृसत्तातमक समाज में सदियों से रहते आने के लिए अभिशप्त है, जो महिलाओं के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण रखता है और जिसके आधार पर हमारी परवरिश, हमारी विचारधारा, हमारे हक़, हमारे फैसले और हमारी ज़िंदगी तय कर दी जाती हैं। हम सभी जानते हैं कि देश में महिलाओं के प्रति अपराध लगातार बढ़ते जा रहे हैं, लेकिन इन आंक़ड़ों को आखिर बढ़ा  कौन रहा है, कोई नहीं बताता..क्योंकि इसी समाज में हम-आप बसते हैं साथ ही हैवानियत के राक्षस भी पनपते हैं और उसी समाज से हम न्याय और सहायता की उम्मीद रखते हैं।
आज समाज का स्वरुप कन्या भ्रूण हत्या, दहेज हत्या, बलात्कार, एसिड अटैक, यौन शोषण. बंधुआ मज़दूरी और लैंगिक असमानता से तय हो रहा है। निर्भया भी इसी समाज का हिस्सा थी, बंगलुरु की बच्ची भी, लखनऊ की वो युवती भी, मैं भी और मुझसे पहले की वो तमाम शोषित, प्रताड़ित महिलाएं भी जो गुमनामी के अंधेरों में छिपे रहने को मजबूर हैं। महिलाओं के प्रति हिंसा का क्रूरतम व घृणित स्वरूप दिखाया जाता है बलात्कार के तौर पर जिसमें तमाम अमानवीय मानकों को अपनाते, अपने पौरुष का प्रदर्शन करते हुए किसी के शरीर पर जबरन कब्ज़ा किया जाता है और कभी पहचान मिटाने के उद्देश्य से तो कभी विरोध करने के एवज़ में उसकी हत्या करने में भी गुरेज़ नहीं होता । लेकिन हम टेलिविज़न डिबेट्स में सिर्फ महिला सशक्तिकरण की बहस सुनने के बाद अपनी ज़िम्मेदारियों से मुक्त हो जाते हैं और कहते हैं कि कर भी क्या सकते हैं।
महिलाओं के प्रति अत्याचार, बलात्कार व यौन उत्पीड़न का आंकड़ा उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा है, क्या ये महिला सशक्तिकरण के नाम पर कलंक नही है। हर रोज़ बलात्कार के कितने मामले दर्ज होते हैं किसी को फर्क नहीं पड़ता, कितनी महिलाएं जला दी जाती हैं लेकिन पीड़ा नहीं होती...एसिड अटैक से विकृत हुए चेहरों की ज़िंदगिया अंधेरे में गुज़र जाती हैं लेकिन कोई रौशनी वहां नहीं पहुंचती और इन सबके अलावा घर-दफ्तर में होने वाले गुमनाम यौन शोषण के मामले तो खबर भी नहीं बन पाते। यौन शोषण और बलात्कार जैसे जघन्य कृत्य की शिकार महिलाओं का जीवन उनके लिए अभिशाप बन जाता है लेकिन हम इंटेलैक्च्युल डिबेट्स करते रह जाते हैं कि आखिर कैसे रोकें, कौन से कानून बनाएं, कौन सी सज़ा तय की जाए। नतीजा,वही ढाक के तीन पात। हर पल, हर दिन किसी की ना किसी महिला की कहीं ना कहीं बलि चढ़ रही होती है और हम कुछ नहीं कर पाते।
देश में महिलाओं से संबंधित कानूनों की कोई कमी नहीं लेकिन क्या सिर्फ कानून के होने से इस समस्या का समाधान मिला। देश की लगभग आधी महिलाएं निरक्षर हैं, कानूनी प्रावधानों से अनभिज्ञ हैं, जागरूक नहीं है, अन्याय के विरुद्ध आवाज बुलन्द करने का साहस नहीं जुटा पातीं। लेकिन उनका क्या जो जागरुक हैं, जो सामने आती हैं, जो आवाज़ भी उठाती हैं क्या उनको न्याय मिल पाया।
हम कैसे स्वाभाव से ही पुरुष वादी और सामंती सोच के रक्षक समाज से उम्मीद करें कि  वो कभी महिलाओं की मन: स्थिति समझ पाएगा, क्या कानून और न्याय पर इस पुरुषवादी समाज का असर नहीं पड़ता होगा...सालों साल चलने वाली सरकारी कवायद इस लड़ाई को और बोझिल नहीं बनाती। पुलिस की तहकीकात, वकीलों की ज़िरह और न्याय प्रक्रिया की सालों साल चलने वाली कार्रवाई उन तमाम महिलाओं का मनोबल तोड़ने के लिए काफी है जो साहस जुटा कर आगे आती हैं और कम से कम आवाज़ उठाने की ज़हमत करती हैं।
शायद ये सवाल ही गलत है..क्योंकि महिलाओं के प्रति अगर अगर ज़रा सी भी संवेदनशीलता दिखायी गई होती तो आज अखबार बलात्कार और शोषण की खबरों से लबरेज़ ना होते और यूंही सड़कों, चौराहों पर खून से सने बेजान नंगे जिस्म नज़र नहीं आते। शायद हम रफू करके जीने के आदी हो गए हैं।
सिर्फ महिलाओं की अस्मिता ही पूरे परिवार का मान मानी जाती है, परिवार की बदनामी का डर दिखाकर कई दफा महिलाओं को खामोश कर दिया जाता है। जो बाकी महिलाओं पर दबाब डालने के लिए काफी होता है। वेश्यावृत्ति, इमॉरल ट्रैफिकिंग एक्‍ट, 1986 के बावजूद वेश्‍यावृत्ति में कोई कमी नहीं आई है। सामाजिक जागरूकता की कमी और लोगों में दिन-ब-दिन घटते नैतिक मूल्यों व आचरण के कारण महिलाओं की स्‍थिति आज भी दोयम दर्जे  की बनी हुई है। जिसके लिए हम, हमारा समाज और हमारी व्यवस्था सब जिम्मेदार हैं।
संवेदनहीनता की पराकाष्ठा के मुहाने पर खड़े इस समाज में महिलाओं के प्रति अपराधों पर नित नए प्रयोग किए जा रहे हैं, कितनी बर्बरता और निर्ममता के साथ बलात्कार और हत्याएं की जा रही हैं लेकिन किसी को उबकाई तक नहीं आती। आज भी हमारे देश में शासन का उपेक्षापूर्ण रवैया और रसूखदारों की अकूत शक्ति न्याय प्रक्रिया को प्रभावित करती है और महिलाओं के अस्तित्व को भी।
शर्मिंदगी महसूस होती है जब जनता के चुने हुए नुमांइदे महिलाओं के प्रति संवेदनहीन, अमर्यादित और अश्लील टिप्पणियां करते हैं। जब अपराध रोकने के लिए महिलाओं को ही घर में रहने और अपनी वेशभूषा का ख्याल रखने जैसीं दलीलें दी जाती हैं। क्योंकि आज भी हम महिलाओं को कमॉडिटी से ज्यादा कुछ समझने के लिए विकसित ही नहीं हो पाए हैं। घर की लक्ष्मी, घर का मान जैसे तमगों से हमेशा उसके हक़ और आज़ादी का दमन करने  में सफल रहे हैं। लेकिन और कितना बर्दाश्त हो, कब तक बर्दाश्त हो। ये समाज  यूंही और कितनी सदियों तक मजबूर रहेगा।
निर्भया के बाद लगा था कि जैसे समाज में जागृति आ गई, लेकिन नहीं वो सब क्षणिक था, वहशत और दरिंदगी रोक पाने की कोई पहल, कोई कवायद नज़र नहीं आयी। हम हर पल मरते हैं, कहीं कोई शिकन नहीं पड़ती। आधी आबादी को क्या कभी उसका हक़ मिल पाएगा, क्या कोई दिन ऐसा आएगा  जब हम बराबरी के हक़ की बात टेलिविज़न डिबेट्स से निकलकर यथार्थ के धरातल पर कर पाएंगे। पता नहीं, लेकिन शायद सदियां गुज़र जाएं। इसीलिए अब डर लगने लगा है इस समाज से, रसूखदार ताकतों से, पुलिस से और देश से।
क्योंकि इस कड़वी हकीकत के बीच आज मैं ये सोचने पर मजबूर हूं कि कल अगर मेरी आवाज़ खामोश करने के लिए मेरे साथ भी ऐसा ही कुछ कर दिया जाए – अपहरण, एसिड अटैक, बलात्कार, परिवार का खात्मा या फिर किसी और तरीके का दबाब या शोषण..तब भी ये समाज इतनी ही संवेदनहीनता दिखाएगा, तब भी कहीं किसी के कहने पर इस खबर को दबा दिया जाएगा। कानून अपने हाथ बंधे होने की दुहाई तब भी देगा। कुछ एक संवेदनशील और जागरुक लोगों के कैंडल मार्च या थोड़े बहुत आर्टिकल्स की शक्ल में थोड़ी बहुत मदद क्या मुझे न्याय दिला पाएगी और क्या ये सारी कवायद उन तमाम महिलाओं को हतोत्साहित नहीं करेगी जो आज भी दुनिया के अलग अलग कोनों में यौन शोषण का शिकार होती हैं, लेकिन कभी आर्थिक मजबूरी और कभी पारिवारिक स्थिति के कारण खामोशी अख्तियार करने को मजबूर हैं।
ये परेशानी सिर्फ मेरी नहीं है, ये हमारा सच है, ये आधी आबादी का सच है, ये वो दर्द है जिसे सिर्फ वोही महसूस कर सकता है जिस पर गुज़रती है, बाकी तो सिर्फ बाते हैं।
सवाल तो बेइंतेहा मेरे ज़हन में कौंध रहे हैं लेकिन जवाब नहीं मिल पाएगा, मैं जानती हूं।
समाज में सर्वाइवल के लिए शायद पैसा और ताकत ही सबकुछ है।

 

 

 

 

Thursday, July 24, 2014

लड़कियां..


वो, जो गायब हो जाती हैं किसी धुंए की तरह..
वो, जो दफन हो जाती हैं इच्छाओं की तरह..
वो, जो जी ही नहीं पाती गुलामों की तरह..
वो, जो ज़िंदगी बनाती संवारती हैं ईश्वर की तरह..
वो, जिनकी उम्रें गुज़रती हैं किसी के मान सम्मान,घर की इज्जत की तरह....
हां वोही, जिनकी रुहें बदल दी जाती हैं किसी मौसम की तरह......
वो कौन हैं, कैसी होती हैं, कहां से आती हैं, कहां चली जाती हैं
अलमस्त, खुशमिज़ाज अल्हड़ लड़कियां....
क्या वो याद आती हैं, क्या वो जगह बनाती हैं...
धरती, अंबर, धूप, छांव, बारिश, बादल, तितली...
एक बार सबसे पूछो...

किसी सावन के बरसने से क्या धुल जाती हैं वो परछाइयां...

अफसोस..
क्यों हर बार मौन हो जाते हैं वो चेहरे...
जिनकी सरपरस्ती में कुर्बान हो जाती हैं वो मासूम जिंदगियां।

Wednesday, July 23, 2014

एक सोता हुआ शहर..


एक सोता हुआ शहर

और अब आपको बताते हैं आज की सबसे बड़ी खबर जिसने देश में सनसनी फैला दी है, शहर के बीचों बीच पायी गई एक लड़की की लाश, जिसके शरीर पर कपड़ों का निशान नहीं था, पुलिस  बलात्कार की आशंका से इंकार नहीं कर रही है....इस खबर ने पूरे शहर को शर्मसार कर दिया है।

क्या शहर कभी शर्मसार हुआ ??

ये है लगभग हर रोज़ सुनी जाने वाली हेडलाइन,वो हेडलाइन जो अब सुर्खी नहीं बन पाती..सनसनी नहीं बनाती, क्यों...क्योंकि हम आदी हो चुके हैं इन खबरों के....क्योंकि हम मुर्दों के शहर में बसते हैं.. क्योंकि अब हर रोज़ बलात्कार होते हैं, इज्जत तार तार होती है, खून के कतरे सड़कों के कोलतार में मिलकर अपनी हैसियत दफन कर देते हैं। क्योंकि फर्क पड़ना बंद हो गया है कि खून किसका था, सड़क किस शहर की थी। अब हम बस हर रोज़ ये सवाल करते रह जाते हैं कि लखनऊ की तासीर तो ऐसी ना थी, बैंगलोर का तो ये कल्चर नहीं, देश की राजधानी क्या निर्भया के बाद भी नहीं संभली....

हम किस मानसिकता के साथ बढ़ रहें हैं...और किस तरक्की की आस लिए इन शहरों में जी रहे हैं.. या हम आंख मूंद कर और ज़मीर को बेच कर जीने के पैबस्त हो चुके हैं।

सवाल ज़िंदगी का या ख्वाहिशों का...

आज भी गांव,कस्बों की सुविधा विहीन ज़िंदगी रोटी और चांद पाने की ख्वाहिशें लिए इन शहरों का रुख करती है और एक दिन अपने आप को ठगा सा महसूस करती है। क्योंकि यहां रोटी तो मिलती है लेकिन लहू की कीमत पर, ज़मीर की कीमत पर.. और ये कीमते यही खोखले, सोते हुए शहर वसूलते हैं। जो इस टैग लाइन के साथ जीते हैं कि बाज़ार के इस दौर में जीवन की गारंटी की इच्छा ना करें।

यौन शोषण..ये शब्द जो आज भी घरों में बच्चों के सामने बात करने में घरवाले परहेज़ करते हैं, कैसे समझाते होंगे अपनी बच्चियों को, कि जो घिनौनी हरकतें वो हर रोज़ बर्दाश्त करती हुई घर से बाहर पांव रखती हैं, यौन शोषण कहलाता है। औरत होना अपने आप में गाली बना दिया गया है, या तो पुरुषों की सरपरस्ती कबूल करों नहीं तो सड़कों, हैंडपंपो पर खून को रिसता बर्दाश्त करो।

अफसोस शहर खून तो रिसता देख पाता है लेकिन अपने ज़मीर का रिसना नज़रअंदाज़ कर जाता है।

छह साल की बच्ची तो ना छोटे कपड़ों में हो सकती है, ना रात को अकेले निकल सकती है और ना अपने ब्वाए फ्रेंड के साथ बाहर हो सकती है फिर मासूम कैसे उकसाती होगी बलात्कार करने वाले को....क्या ये सवाल उनसे लाज़िम नहीं जो हर बलात्कार के बाद बेहूदे तर्क पेश करते करते आज तक शर्मिंदा नहीं हो पाए।

दरअसल सवाल सिर्फ बलात्कार करने वालों से नहीं, सवाल इस समाज के हर उस हिस्सेदार से है जो संवेदनहीनता की पराकाष्ठा के साथ दम भर रहा है। ये समाज सिर्फ उस वक्त जागता है जब खुद के दामन पर छींटे पड़ जाते हैं, या अपने आंगन में खेल रही मासूमों की मासूमियत खत्म करने की कोई कोशिश करता नज़र आता है।

हमारी आंखे खुली होती हैं, लेकिन हम देख नहीं पाते।

क्योंकि देखने पर नज़रअंदाज़ करना मुश्किल होता है।

कहने को तो देश में लोकतंत्र है, सरकार है, नियम-कायदे-कानून सब हैं लेकिन कहां ?

आधी आबादी के सशक्तिकरण की बड़ी बड़ी बातें करने वालों के कंधे आज तक यौन शोषण और बलात्कार के आंकड़ों से झुके नहीं, बड़ा आश्चर्य होता है। कम से कम महिलाएं महिलाओं से तो उम्मीद कर ही सकती हैं कि कोई तो हो जो उनकी अस्मिता, उनके हक़ की बात करे। लेकिन नहीं, अब तो अफसोस भी करना शर्मिंदगी का एहसास जगाता है। महिला आयोग कहां ज़िम्मेदारी निभा रहा होता है, जब एक लड़की यौन शोषण का आरोप लगाती है और महिला आय़ोग उसके परिवार के एक सदस्य को सम्मन जारी कर देता है। ये वही देश है ना जिसमें सड़क पर खड़ी एक लड़की को दस करोड़ की मानहानि का नोटिस भिजवा कर उसका मुंह खोलने की सज़ा देने की कूवत रसूखदार रखते हैं।

हम आदी हो चुके हैं ऐसे समाज के,ऐसे हिस्सेदारों के और ऐसी रिवायत के।

जहां बलात्कार, यौन शोषण के लिए लड़की को ही आरोपी बनाने की कवायद चलती है। उसके चेहरे को, उसके पहनावे को, उसके चाल चलन को उसके बलात्कार के लिए दोषी ठहराया जाता है। बलात्कार पीड़िता के नाम पर निर्भया फंड बना दिया जाता है लेकिन जिसका संज्ञान लेने की ज़हमत तक कोई नहीं उठाता।

ये सिर्फ महिला ही जानती है कि बलात्कार सिर्फ शारीरिक ही नहीं होता, हर रोज़ घूरती नज़रें, समझौता करने का दबाब बनाते हालात और इनसे जूझने की मानसिक जद्दोज़हद हर रोज़ बलात्कार जैसा ही दंश देती है।

इंतज़ार किस इंतेहा का है, क्या जब सांस लेना दूभर हो जाए, सड़क पर निकलना दुश्वार हो जाए, हर गली और हर सड़क पर तेज़ाब की बोतल लिए एक शख्स नज़र आए और हर रात किसी औरत की चीखों और सिसकियों से इस समाज की नींद मुहाल हो जाए.....तब जागेगी ये सरकार और तब करवट लेगा ये समाज.

इससे पहले कि हदें पार कर चुका शोषण और अत्याचार अपने चरम पर पहुंचे, अपनी आंख के पानी को मरने मर दो, वर्ना ज़िल्लत इस सोते हुए समाज को मुर्दा बना देगी और कसूरवार ठहराने के लिए उंगली किसी और की तरफ नहीं बल्कि खुद तुम्हारे ही ज़मीर पर उठेगी।

Monday, December 3, 2012

मक्तबे इश्क़ का दस्तूर.....

कमरे के बीचों बीच रखी ग्लास टेबल पर रखा स्कॉच का ग्लास...और उस पारदर्शी ग्लास के पार से आती पीली मद्धम रौशनी परावर्तित होकर प्रिज्म जैसा आभास दे रही थी....फैब इंडिया का जलता लैंप और उसकी भी पीली मद्धम रौशनी कमरे में एक उदास बैकग्राउंड का भरपूर एहसास कराने के लिए काफी थे......गोया पीली रौशनी और उसकी ज़िंदगी में कोई अबूझ रिश्तेदारी हो.....और हां मद्धम सी आवाज़ लिए आबिदा भी कहीं उन शामों की हिस्सेदार थीं....

उसकी ज़िंदगी के अनछुए हिस्से की तरह वक्त के किसी कोने में खड़ा लैंप,उसकी अकेली शामों का हमदम,खूबसूरत कटिंग का ये ग्लास और उसकी जिंदगी के रंग को हर पल महसूस कराती ये पीली मद्धम रौशनी उसकी हर शाम के साथी थे....(अनकहे)

जहां अक्सर आबिदा उसकी शामों को गुलज़ार करने के लिए इश्क गुनगुनातीं थीं......

वो शायद किसी के इंतज़ार में थी....
नहीं, वो तो हर शाम ही किसी के इंतज़ार में रहती थी...
वो कहती थी कि उसे ज़िंदगी का इंतज़ार था....

और वो इंतजार मुसलसल चलता था...कभी खत्म ना होने के लिए....
उसके लिए...
वो जिसे ये मद्धम रौशनी पसंद नहीं थी.....पर जिससे वो दिन के उजाले में मिल नहीं सकती थी..... वो जिसे उसका यूं सरे शाम पीना पसंद नहीं था....पर वो,जो उसके नशे को उतारने की तरकीब भी नहीं जानता था....वो जिसके इंतज़ार में उसकी मुद्दतें गुज़र रहीं थी....पर वो उसके इंतज़ार की घड़ी को देखकर भी अनदेखा किया करता था......वो जिसके दर्द में डूबी ये तमाम शामें अब ज़िंदगी का हिस्सा बन चुकी थीं....पर उसकी जिंदगी का हिस्सा उन शामों में दस्तक नहीं दिया करता था.....

ऎसा नहीं कि जिंदगी ने कभी उस चौखट पर दस्तक नहीं दी....पर ऐसी कोई दस्तक नहीं हुई जिसके लिबास को, जिसकी आहट को, जिसकी सांसो को, जिसकी आमद को उसकी रुह पहचानती हो.....

वक्त के साथ साथ उसका इंतज़ार लंबा होता जा रहा था....और वक्त की ये लंबाई उसकी जिद्द को बढ़ाती जा रही थी....कहते हैं कि वक्त गुज़रता है तो अपने साथ कई चीजों को अनकहे ही साथ जोड़ता चलता है.....मसलन,

चारदीवारी के बीच अकेलेपन से बातें करने का हुनर....
बेवजह हंसी और अश्कों के उबाल के बाद सब्र का हुनर....
गुज़िश्ता पन्नों की स्याही की ताज़गी को महसूस करने का हुनर....
वक्त के सायों में छिपी परछाईंयों की खुशबु को जीने का हुनर....
अपनी ही बनायी दुनिया में इंतज़ार की रातों को जागकर काटने का हुनर.....
अलसाई सेज पर अपने आप को ज़ब्त करने का हुनर...
अपने ख्वाबों को हर रोज़ झाड़ पोंछ कर धूप दिखाने का हुनर....
जेठ की तपिश औऱ भादों के बरसने से अपना दामन बचाने का हुनर.....
अपनी तबियत,जज्बातों को बहकने से बचाने का हुनर....
कभी ना खत्म होने वाले इंतज़ार को जानते हुए भी हर रोज़ उसी इंतज़ार में शाम बिताने का हुनर....

वक्त की हर पाबंदी और तब्दीली शायद ज़िंदगी को जीने का हुनर नही सिखा पाती...शायद इसीलिए इंतज़ार में एक सौ सोलह चांद की रातें भी कम पड़ जाती हैं....और शिकवों की फेहरिस्त लंबी होती चली जाती है......स्कॉच ने जिंदगी को डूबने से बचाने का हुनर दिया या डूबती जिंदगी को उबारने का हुनर ये तो वो नहीं जानती पर हर शाम जब जलती स्कॉच उसके भीतर कुछ सुर्ख करती हुई उतरती तब आबिदा की आवाज़ की पुरज़ोर कशिश उसके इंतज़ार को और बुलंद करती है......हर शाम गली के मुहाने से गुज़रते दो आवाजें एक साथ सुनायीं पड़ती हैं....

मैं हूं मशहूर इश्क़बाज़ी में.....

Wednesday, September 26, 2012

मां..

आवाज़ ...हर आवाज़ के साथ शायद एक रिश्ता होता है....मां के गर्भ में पल रहे छोटे से जीव का पूरा जीवन उस आवाज़ के ज़रिए ही अपनी गति पकड़ रहा होता है...हर आवाज़ की अपनी एक पहचान है....उसमें दर्द है...उल्लास है...प्रेम है...अभिव्यक्ति है....छिपाव है...हिचकिचाहट है पर ....कहीं बहुत महीन पर्तों के भीतर दबी छिपी एक सच्चाई भी है जो मां और बच्चे के रिश्ते की डोर पकड़ती है....जो मां को मां बनाती है और बच्चे के हर बोल में छिपे सार को पहचानती है...


मां की आवाज़ बेशक तेज़ है,तीखी है...पर कई गहरे समंदरों का दर्द समेटे है...
उसमें बनावट नहीं है....
नन्हे बच्चे जैसी निश्चलता है और दुनियादारी को ना समझ पाने की अचकचाहट भी है....
उसकी आवाज़ में पूरी कायनात है.....
हर रंग है....हर अहसास है...
जब वो बोलती है तो लगता है...
जैसे कहीं दूर....
किसी बावड़ी में गहरे उतरकर, सदियों से शांत पड़े पानी को किसी ने हौले से छू दिया हो....
जिसकी हिलोरो में मैं मीलो दूर होकर भी ठहर जाती हूं.....
उस गमक से निकलते सुरों में रागिनियां नहीं है.....
जब वो गाती है तो राग मल्हार नही फूटता....
पर शायद कहीं दूर ...कहीं बहुत दूर...
हज़ारो मील दूर....
किसी गहरे दबे-छिपे दर्द की अतल गहराईयां यूं सामने आ जाती है,
जिनके आगे सुरों की सारी बंदिशे बेमानी लगती हैं....
उसके सुर मद्धम चांदनी रात में बेचैनी पैदा करते है....
उसके सुरो की चाप उसके सूने जीवन को परिभाषित करती हैं...
उसकी गुनगुनाहट जीवन के रंगो के खो जाने का एहसास कराती है.....
उसकी आवाज़ से निकलता दर्द...जीवन की नीरवता बताता है.....
उसकी आवाज़ से किसी घायल हिरणी की वेदना पैदा होती है....
उसके गीतों के बोल उसके जीवन की गिरह खोलते हैं....
वो सुंदर नही गाती पर दर्द भऱा गाती है....



मैं कभी गाना नहीं चाहती......



मां के पास अनगिनत किस्से हैं...
पर सुनने वाला कोई नहीं...
उसका घर खाली है....
उसका जीवन भी...
वो बारिश की फुहारों के बीच अकुलाते पौधे की तरह है....
वो अपनी आवाज़ अपने आप सुनती है....
वो कहानियां कहती है ...और आप ही झुठलाती है......
वो अपना दुख कहती है....और आप ही हंस जाती है....
वो दिन भर का किस्सा बताती है और थक जाती है.....
वो अकेलेपन में भी जीवन तलाशती है..


वो बिना चश्मे के भी देखने का दावा करती है....
वो हर रोज़ मेरे खाना ना खाने पर गुस्सा करती है.....
पर प्यार और मनुहार भी करती है....




मेरे कमरे में मेरी मां रहती है बिना साथ रहे
मैं सिर्फ चुपचाप सुनती हूं.....बिन कहे
मेरी वेदना है मेरी मां....
उसकी जिंदगी के गिरह ना खोल पाने की वेदना
उसके हर रोज़ जिंदगी से जूझते देखने की वेदना...
उसकी जिंदगी के अकेलेपन को हर रोज़ महसूस करने की वेदना
उसे खूबसूरत चेहरे को झुर्रियों मे तब्दील होते देखने की वेदना
उसकी खोयी जिंदगी दोबारा उसे ना दे पाने की वेदना

मैं अकेले कमरे मे उसकी आवाज़ को खोलना चाहती हूँ ....
एक एक गाँठ , एक एक बोल और एक एक रेशा

उसको जीवन देना चाहती हूं....
उसके पूरे जीवन के साथ मेरी सिर्फ ग्लानि है...


मैं उसे जीवन देना चाहती हूं...।।

Thursday, November 24, 2011

बस नदी हो जाना .....


नदी का सपना...
नदी को पाना
अब जैसे कुछ भी करना...
बस नदी हो जाना .....
नीम बेहोशी खुशियां...
जागते सोते गलतफहमिया....

एक अंजुरि नदी मेरे भीतर ......
हर पल कुछ कहती है,,,
सुबह अब हर रोज़ होती है....
हर पीछे छूटी रात की तरह...
और नदी भी आवेग देती है...
मेरे भीतर बहते प्रवाह की तरह.....

नदी को पाकर.....क्या ........
तलाश खत्म....फिक्र खत्म....
जैसे जिंदगी भी खत्म
किसी की जिद नही ....
कोई कसमसाहट नहीं...
बस एक खिलखिलाहट ..
कल...कल
मेरे भीतर....!!

Monday, November 7, 2011

एक मुक्तिबंधन !!


तुम प्रेम करते हो..
पर क्यों तुम्हारा प्रेम
वाणी से वंचित रहता है
कई पर्दों के ज़रिए..
उस पर पर्दा रहता है
जानती हूं
मौन की भाषा होती है...
लेकिन कब तक
कोशिश जारी रखूं...
उन अनगढ़ शब्दों को
स्वयं तराशती रहूं....
प्रस्तर खंड बनकर....
जब्त करती रहूं...
इंतज़ार कब तक हो..
तुम्हारे मौन के टूटने का
संसार को रचने का...
चाहिए
एक मुक्तिबंधन...!!