Friday, March 19, 2010

पूरे चांद की रात.......

लड़की बड़ी ही बेकल...पूरे चांद की रात...फागुन का महीना और उसका साथ...
(कोई नहीं जानता जब वो खुश होती है तो उसके भीतर एक आबिदा गुनगुना रही होती है )
नहर किनारे चलते चलते वो रास्ता यूं पार किया मानो...
सुर्ख फूलों का कालीन और हरे खेतों की बिछी चादर....
फिर पहुंचे... तो जंगल...पहाड़...नदी का मुहाना और चंद अजनबी...
अजनबी सिर्फ लड़की के लिए...लड़के के लिए मानों दूसरा घर....
जंगल में.... नदी के मुहाने...रंगो के बहाने.... उन अजनबियों के बीच...
चंदा को अपनी बांहों में लिए जाने का सपना संजोए....
बड़ी संजीदगी से फागुन का रस ले रही थी...वो...
जिसमें ज़मीन से लगे कुछ पीले फूल...केले के पौधे पर खिल रहा एक लाल फूल
और तमाम लाल गुड़हल के फूलो के साथ हरी घास के बीच..नदी की कल कल के साथ.....
सुर्ख रंग की तलाश कर रही थी...
बीच बीच मे लड़का आता...देखता पर समझ नहीं पाता....
तुम ऑड वन आउट क्यों रहती हो....
नहीं कुछ नहीं ...बस थोडा असहज हो जाती हूँ...अजनबियों के बीच ....
(इतने अजनबियों की मुस्कान भी राहत नहीं दे पाती है....)
पर मन ही मन सोचती...
( हाँ ....शायद तुम समझ नहीं पाते .....मैं समझा नहीं पाती....)
पर कहा नहीं..
उसने पूछा...मेरे साथ चलोगे...उस झरने के मुहाने तक...
नहीं तुम रहने दो...तुम्हारे बस की बात नहीं...
नहीं...एक बार....बस तुम्हारे साथ तो कहीं भी...
नहीं कहा ना...रहने दो...
अच्छा ठीक....फिर गुस्से से सोचा....(यू ऑल्वेज़ अंडरएस्टिमेटेड मी....)
पर कहा कुछ भी नहीं....
सिर्फ एक मुस्कुराहट...
फिर दूर नदी के मुहाने ....शांत सी जगह में कुछ अपने लिए नज़र आया....
जहाँ से दूर-दूर तक दिख रहा था...
लहरों ...पत्थरों का ताना बाना.....
क्षितिज, पहाड़ों की एक नितांत सीमा
जहाँ से सूरज की किरणे....रोज़ सुबह .... आती होंगी ,
उसके टेंट में ....इस घास के मैदान में....और इसी गंगा के पानी में ....
गुड़हल हो या पलाश के फूल....
सभी को सींचती है....
पर शायद वो कहीं खो सी गयी थी
वो नदी के किनारे .....प...से पानी...प से पेड़ .....प से पलाश की तलाश कर रही थी
क्यूंकि उसकी प से प्यास बढ़ रही थी...
वापस आने पर लड़के ने पूछा कहाँ गयीं थीं ........लड़की ने कहा पलाश बीनने...
क्या...नदी किनारे,,,पत्थरों के बीच पलाश ...पागल हो क्या....
तुम नहीं जानते मुझे हर जगह पलाश दीखते हैं...बस चुन नहीं पाती ...
मेरे साथ चलोगे पलाश बीनने.....एक बार
gone केस.....
फिर ....
लड़का अपनी दुनिया में...अपने दोस्तों में....अपने में....अपनी बोतल के साथ....जिसे वो अपना पानी कहता....
क्योंकि उसमें उसका साथ देने वाली वोडका मिली थी...
मुझे भी चाहिए....तुम्हारा पानी.....दो घूंट...
दो ..दो के बाद चार फिर छह घूंट....
लड़का कहता है...डोंट हैव इट मोर....आए डोंट वांट टू हैंडल यू.....
एक बार फिर...गुस्सा....ठीक है..
(यू ऑलवेज़ अंडरएस्टिमेट मी...आएम नॉट ए किड....इवन आए वांट टू हैव इट.....
यूं डोंट नो....वट आए वांट टू हैव ऐवरीथिंग विद यू.....)
पर कहा कुछ नहीं....
सामने जल रही आग....कुछ सूखी लड़कियां....जंगल के बीच...अजनबियों के बीच......
हां लकडियाँ सुलग रही थीं....बनती बिगड़ती बटोही सी.....
पर उसके मन की गिरह कहीं भटक रही थी...
पर फिर भी वो उदास...अपने मन के साथ.....अजनबियों के बीच....
बीत रहे पलों को हल्का बनाने की कोशिश में. थी ...
उस उदास पूरे चांद की रात में...
उन लकड़ियों से उसका मन उजास नहीं हो पा रहा था....
कुछ जल रहा था भीतर....जिसका सेंक उस तक नही पहुंच पा रहा था....
उस पूरे चांद की रात में....पास बहती नदी की कल कल....करती धार...
रात होने का एहसास जगा रहे झींगूर.......सामने एक के बाद एक दम साधे बैठी चट्टानें....ही
सिर्फ उसके मौन की साक्षी बन पा रही थीं....
और पास बैठा रांझा..
कमबख्त यही मौन तो है जो उसके उजास जिया को काला किए बैठा है...
जहां छायी अमावस छंटने का नाम नही लेती और एक बार फिर य़हां भी....
वो ही सब....जिसे दूर करने वो शहर से यहां तक आयी पर....
पर वो उदास चुनरी भी उस के साथ साथ चली ही आयी....
फिर अगले दिन...रंगो का त्योहार....
वो चाहकर भी टैंट से बाहर नहीं निकल पायी...
लड़के ने पूछा ....क्यों होली नहीं खेलनी...
(शायद तुमने पूछा ही नहीं....अकेले ही तो गए थे होली खेलने)
नहीं मैं खेलती नहीं.....
(फिर मन में कहा....रंग रूठ गए हैं.....मेरे साथ मिल नहीं पाते....)
उसने सोचा शायद रंग खुद चल कर आया है....कुछ पलों के लिए
पर लड़का वापस लौट गया.....अपनी रंगीन दुनिया में.....
पलट कर नहीं देखा....कुछ नही पूछा.....बस वहीँ एक इंतज़ार में....
वो रंगहीन टैंट ....उस उदास दोपहर के उजाले के साथ.....
जिसमें उजाला कही नही था.....
रंगो का इंतज़ार रहा पर रंग नहीं आए...
सुबह गयी...दोपहर भी थक गयी
पर उसकी आंखो से उबलते झरने में भी किसी को कुछ नज़र नही आया.....
जाने कैसी जिंदगी..थकी सी....बेरंग सी....
एक ही तो रंग उसका....
पर वो भी उससे दूर...
अजब दुनिया थी वो...चारो तरफ से प्रकृति के रंगो से भरपूर....
पर जिंदगी के रंगो से दूर...
बढ़ती धड़कनो की तरह...वक्त भी बढ़ता जा रहा था...
शायद मियाद खत्म हो रही थी...
हाँ ...वापस जाना था....भीड़ में
पर वो जाते जाते...बस मुट्ठी भर रंगो को अपने साथ ले जाना चाह रही थी....
उसने बाकी बचे रंग अपनी मुट्ठी में भर लिए..
लड़के ने पूछा...होली तो खत्म...अब क्यों
उसने देखा...सिर्फ हंस दी ....
(और सोचा ..शायद तुम नही समझोगे.......बचे हुए रंग जज्ब करके रखना चाहती हूं....शायद अगले फागुन के लिए...पहले से ही.....शायद चंदा को तकते तकते......पलको में इन झिलमिल तारो को बसाते...वो फागुन जल्दी आ जाए और मेरे रंग भी ले आए...अपने संग...जिससे तुम्हें रंग सकूं...)
पर कहा सिर्फ इतना ही....तुम्हारे लिए .....सिर्फ तुम्हारे लिए .....
लड़का बस देखता रहा...समझ नहीं पाया
आए डोंट वांट टू अंडरस्टैंड यू....डू वॉटएवर यू फील लाइक....बट डोंट टैल मी....
लड़की बंद पलकों में अपने सपने भरती है और कहती है...
(मेरे रंग ....मेरे से नहीं..जाने कब रंग मिले अब...)
वो सारे घने दरख्त...वो सारे शफ्फाक उजाले...कई रातों से भी गहरे वो अंधेरे....रंगीन राहो के साए...
वो तमाम चीज़ें जो वहां की पहचान नुमायां कर रही थीं,,,
सब बस पलको में समाती जा रही थीं....
वो लड़की उन बांहो के साए के साथ ...जिनके साथ साथ वो आजादी से चल रही थी ..
अपनी धड़कनो को महसूस करते....जंगल से मिलती जुलती याद की ही तरह...
पर रंगो की हसरत लिए...बेसबब वापस लौट आती है ....
अगले फागुन के इंतज़ार के लिए....
रंगों के लिए....
लड़का खुश है ...बहुत खुश.....
कुछ नए रंग थे....
शायद .....!!

8 comments:

Udan Tashtari said...

बढ़िया प्रवाहमयी!

संजय भास्‍कर said...

bahut hi sunder

डॉ .अनुराग said...

जानती हो कल अचानक देव- डी दोबारा देख रहा था .उसमे एक सीन है जिसमे चंदा कोलेज जाने से पहले अभय से पूछती है .वापस आयुंगी तो मिलोगे ....उसके बाद कुछ घटनाएं घटित होती है .ओर अभय वापस अपने रास्ते .....जाने क्यों वो सीन कई देर तक साथ रहा........आज तुम्हे पढता हूँ तो शुरू से उदासी मिलती है .फैली फैली सी .कई रंग लिए .....सोचता हूँ आखिर में शायद कोई फूल खिले..हंसी का ......पर उदासी अब भी सफ्हो पर बिखरी पड़ी है .......आज अचानक नहीं समझ पा रहा इस कहानी को पढ़कर मुझे वो सीन क्यों याद आ रहा है .....कोई कनेक्शन नहीं फिर भी....शायद उदासी का असर है

महुवा said...

ज़िंदगी मे से जब हंसी गायब हो जाती है तो जाते जाते वो आपको अपने ऊपर हंसना ज़रुर सिखा जाती है...मेरे साथ साथ आप भी हंस सकते हैं...

अबयज़ ख़ान said...

इतनी उदासी के पीछे वजह क्या है..
हसरतें कभी किसी की कहां पूरी होती हैं..
ज़माने की ठोकरें जब किस्मत में लिखी हों...

Amitraghat said...

मौन रहना अच्छा होता है पर हमेशा नहीं,दूसरे की मन की बात केवल ईश्वर ही समझ सकता है हर कोई नहीं............"
प्रणव सक्सैना
amitraghat.blogspot.com

Puja Upadhyay said...

इस पास होकर करीब न होने को महसूसने जैसा लगा तुमको पढ़ना...लगा खुद को ही जी रही हूँ. जंगल के बीच ये खूबसूरत उदास तन्हाई, तुमने कमाल का चित्र खींचा है. डूब कर पढ़ा...रंग देर तक साथ रहेंगे मेरे भी.

pawan Dutt said...

Very nice written