Thursday, March 11, 2010

पता नहीं क्या....पर सबकुछ मेरा....

चितचोर जैसा नाम...देखी....बूझी सी कुछ अच्छे सिनेमा की सनद जैसा....बिसारी सी बातें याद कराता...जाने कैसे जुझारु मन की गांठ खोलता....लाख कोशिश कर लो...बिना जाने बिन पहचाने एक लफ्ज़ बाहर नहीं निकालने का....बातें करना क्यों अच्छा लगता...कोई बुझा नहीं पाता...बहुत जुझारु..बहुत ज़ोर....बिना आंख तरेरे जो ज़बान से इक शब्द निकाले तो जान मार दे....उसी की तस्वीर को बुहारने जैसी कोई नया सिनेमा होता....आंख के आगे से पर्दा हटने नहीं देता......सिनेमा के रंग अजीब...कई बार जैसे इंद्रधनुष के रंगो से भी अलग....बडे ही सतरंगी...मनरंगी....कई कई हज़ार मील बसाते....कही दूर ले जाते...मन काहे ना मानता...ना मानने की ही जिद्द करता....इक धड़कन थामती....तुम्हारी आवाज़....बड़ा ज़ोर लगाती....समझाने..बुझाने...दुनिया दारी समझाने ....पर अबूझमाड़ के जंगल सी ये दुनिया...समझने को जी ही नहीं करता....ना मानता....ना बूझता...इक रंगीली दुनिया का ककहरा सीखती....सांस कभी फूलती...और कभी दम घोंट जैसे मानों रुक ही सी जाती...भार नहीं उठाया जाता.... झूठा ....समझने के ढोंग करने जैसा....मैं जैसी...वैसी ही मरना चाहती.....दुनिया में झूठे जीने के कशमकश के बीच....रेशम से फिसलते महीन सपनों को बुनते रहना....सिर्फ बुनते ही रहना...तुम्हारा साथ पा जाती तोभी और फिसल भी जाती तो भी अपने को झाड़ पोंछकर संवार लेती....पर सपने बड़े सुनहरे....रंगीन तागों जैसे...फंसाते और एक सूरज दिखाते...एकदम झक्क सुनहला....पर एक अलग सी फंसाने जैसी बुरी सी दुनिया....तुम्हारी दुनिया....तुम्हारे साथ के नाम...चंद नाम जो बताते....फलां ज्यादा ज़हीन...पढ़ा लिखा...सेक्यूलर....धर्म,..... अध्यात्म पर बहस कर सकने वाला..... कितने अजीब से लगते ये नाम...लोहिया... नक्‍सलवाद...जयप्रकाश, मंडल...लेनिन...मार्क्स... माओ,चे...और भी पता नहीं क्या क्या.... ये और माओवादी ओफ्फ....जाने क्या खाके पैदा हुए....वो इस दुनिया के नहीं....कम से कम ...सिनेमा....इल्यूज़न....कहानी....कविता....मेरे इश्क की दुनिया के तो बिल्कुल भी नही.....उन्ही खोयी...अबूझी शक्लों में....आज को तलाशने की कोशिश तो पूरी करती हूं....पर मन माफिक नहीं....गंदी कसैली शराब के स्वाद जैसे ये नाम.....जिन्हें ढूंढने के बाद अब भी बहुत कुछ उन्‍हीं शक्‍लों में खड़ा नज़र आता है जहां आज से पचास साल पहले उसका खड़ा होना साहित्‍य में मुक्तिबोध में दिख रहा होगा.....बड़ी अबूझ पहेली सी है ये दुनिया....जिसकी सनद मेरी आंखों से देखना चाहते हो....नहीं अच्छी लगती....मेरी जान निकलती है......ऐसा जैसे...पुरानी दिल्ली से किसी की यारी...कमबख्त...कहीं गहरे जमी जैसी....खुरेचना भी चाहों तो पर्त दर पर्त....किरचें उधड़ती जाएँ....पर दाग ना छूट पाएं..वो जो गहरे बस जाते...कभी निकल भी ना पाते...कभी कभी पागलो की तरह दिमाग में फतूर घूम जाता....बवाल सा....तुम एक बार मेरी मां बन देखते....क्या देख पाते जख्म..डर....या समझ जाते....इश्क की कैफियत.....ना...डर कर शायद मेरी मति मारी जाती...उलट सुलट सोच जाती ....तुम मां भी नहीं...मेरे बाप भी नहीं...मेरे भाई भी नहीं....पर पता नहीं वो भी तो नहीं....जो मैं देखती....कभी नहीं कहा...पर आज बताने को जी कर गया सो ...सुन भी लो...दुनिया के सारे बुज़ुर्गों से मुझे बढ़ी कैफियत बरसती लगती...ना जाने क्यूं हर शक्ल में अपने बाप की शै तलाशती थी....अब नहीं...अब लोग अच्छा लगना बंद हो गए है....अब कोई नहीं दिखता....पर दुनिया के झोल समझते समझते...सांझ बुहार जाती....कमबख्त दुनिया समझ नहीं आती...दूर किसी और दुनिया के उस छोर से भागने का मन करता..तुम्हारे साथ अपनी दुनिया में रहने का मन करता.......बस और कुछ नहीं.........क्यों...क्या...कैसे...कब...कहां की दुनिया से दूर....बहुत दूर...किसी जंगल में जाके खो जाने जैसा....किसी नदी में डूब के वहीं बस जाने जैसा....किसी हवा में उड़के कहीं दूर उड़ जाने जैसा.....पर तुम्हारे साथ....

7 comments:

डॉ .अनुराग said...

अजीब बात है कई फिल्मे ऐसी है जिन्हें देखकर कुछ ओर बांटने का मन करता है ...जैसे मिस्टिक रिवर या इरानियन फिल्मे ....या किसी ना उम्मीदी से उठाई गयी किताब में कुछ लाइने..इस दुनिया की वैसी तस्वीर पेश करते है जो आपके मन माफिक नहीं है .पर अनजान नहीं है ....अपने मन की दुनिया तो गर मिलती है तो बस कुछ लम्हों के लिए उल्टा खड़ा करके रखी गयी रेत घडी के परपोश्नल ......

अरसे बाद मसरूफियत से निकली हो शायद या शायद उकता गयी थी इस कम्प्यूटरी दुनिया से .....कई बार इस दरवाजे पर आया ....के शायद कोई पुरानी नज़्म ही पढ़ लूं...आपकी .आमद हमेशा सुखद होती है

महुवा said...

शुक्रिया अनुराग जी...आप हमेशा ही बहुत हौंसलाअफज़ाई करते हैं...जो बहुत अच्छी लगती है...आपका मैसेज मिला था....मसरुफियत की वजह से नहीं बल्कि बहुत सारी वजहे थी....जिनके कारण कंप्यूटर की इस दुनिया में झांकने का मन नहीं कर रहा था....एक अदद सुर्ख पलाश की तलाश थी....जो अब तक पूरी नहीं हुई....जिसके चलते ना जाने कितने दिन यूं ही बस बहते चले गए....कुछ इंस्टॉलमेंट में खुशियां मिली थीं....जिन्हें बस जकड़े रहने का मन कर रहा था....और डर भी था...ना...जाने कब रेत की मानिंद फिसल जाएं....बस कुछ ऐसी ही कवायद में उलझी ये ज़िंदगी चल रही थी....और अब एक बार फिर.....
थोड़ा सा खालीपन का एहसास लिए वक्त चारों तरफ ठहरा हुआ है.....और मैं एक बार फिर....रुबरु...इस दुनिया से...!!

डिम्पल मल्होत्रा said...

किस तरह सहेज सहेज के लिखा है आपने.कुछ अपने मन की लगी.हवा में उड़ना.जंगल में खो जाना पर तुम्हारे साथ.

संजय भास्‍कर said...

अरसे बाद मसरूफियत से निकली हो शायद या शायद उकता गयी थी इस कम्प्यूटरी दुनिया से .....कई बार इस दरवाजे पर आया ....के शायद कोई पुरानी नज़्म ही पढ़ लूं...आपकी .आमद हमेशा सुखद होती है

वर्षा said...

अरे पर गंदी कसैली शराब क्यों कह दिया

महुवा said...

that was for 'RUM' varsha....!!

अबयज़ ख़ान said...

सांझ बुहार जाती....कमबख्त दुनिया समझ नहीं आती...दूर किसी और दुनिया के उस छोर से भागने का मन करता..

दुनिया से इतनी बेरुखी की वजह.. हां एक बात और.. इस उर्दू का तो मैं भी कायल हूं...
चलिए अब एक शेर आपके लिए..

दुनिया से हटके ख्वाब में जीने का मन करे..
चाहत के तहत खोटे नगीने का मन करे..
सबसे यही कहते रहे ठोकर पे है जमाना..
उससे लिपट के आज भी रोने का मन करे...