Tuesday, July 28, 2009

इश्क.....

जब हम इश्क में पढ़ जाते हैं तो शायद दीवाने हो जाते हैं......कभी पनियाली आंखों से दुनिया को बरसते देखते हैं.....तो कभी खुद के बरसाए मेघों में डूबते-उतराते हैं.....पर दीवानगी के इस आलम में अपनी बुजुर्गियत से कोताही नहीं बरतते........धड़कनों की रवानगी पेंडुलम सरीखी लगती है.......वक्त के सफ्हें उन नज़्मों मे तौले जाते हैं.....जो इश्क की कैफियत को बयां करती....हमें चाक करती निकलती हैं......दिन हो या रात....इतनी कैफियत नहीं कि सन्नाटों से बहस की जाए.....मसरूफियत के इस आलम में ना मालूम किस कोने से खाकसार की खुद की आवाज़.....तुम्हें ही नुमांया करती नज़र आ जाए......इस सन्नाटे में बसती मासूमियत तुम्हारी कशिश जितनी दिलकश तो नहीं पर तुम्हें ज़रुर मेरे ऱुखसार तक ले आती है.......कई रात जागने के बाद मिलने वाली वो नींद....मानों सारे दरख्त अपनी अपनी जगह स्थिर.....और अपनी पत्तियों को उनके आधार का सुकून देते..... कमबख्त वो भी तुम्हें ही नुमायां करते........पर धीरे धीरे चांद को अपने आगोश में लेने वाली अमावस कब मेरी दहलीज़ आकर खड़ी हो गयी....इस नीम बेहोशी के आलम में पता ही नहीं चला.....आज वो सारी सड़कें सुनसान.....वो दरख्त सूखे.....वो रास्ते बियाबां......वो सारे मंज़र खौफनाक और वो मेरी सांसो की आवाज़ मुझे ही अंधेरे का एहसास कराने लगी...... एक प्यास उस उम्मीद की किरण की.....जो शायद कहीं दूर से ही सही पर टिमटिमा तो जाए.........एक जैसे शाश्वत भटकन....तुम्हारी उनींदी आंखो को खोजती....उन्हीं मरहलों तक जाती....टकराती और लौटती.......पर सिर्फ दुखदायी.........
वो अमावास की ही तो रात थी.....मेरी ज़िदगी की अमावस......जो लाख चाहने पर भी पूर्णिमा नहीं ला पायी.....जब चाँद भी सायों को ओढ़ कर सो रहा था.....हवा अवाक सी खड़ी.....कभी दबे पाँव अपना भार दूसरे पैर पर टिका देती.....मानों कहती....बस यूंही जी बहला रही हूं.....
पर वो सो रहा था......शान्त जैसे इस अमावस का उस पर कोई असर नहीं....जैसे उसने ही चांद से कहा कहीं छुप जा.....अपना अन्धेरा ओड़कर कहीं खो जा........ये अमावस का गहरा काला रंग फैलने दे......उसकी जिदगी में काला रंग उड़ेलने दे.........लेकिन उसे तो मालूम ही नहीं था...........कि उसकी साँसों की आवाज़ की लय में और भी किसी की साँसे शामिल थी...... सुकून से ली गई साँसे जो आत्मा को शायद हौले से झुलाती......हां, वो रात सो रही थी......और नींद सब पर पहरा लगाये बैठी थी..... पर इस रात में करवटें नहीं....कोई आधे अधूरे.....धुँधले,हल्के ख्वाब नहीं....बस नींद......एक ऐसी नींद जिसमे एक यकीं था......कल के एक नए सवेरे का......इसलिए इस नींद में कोई थकान नहीं........

उस नींद में सिर्फ एक सपना........बस एक ही सपना........ एक सपना.....भोर के कुहासे में चमकती उम्मीद की शबनमी बूंदों का........कांपती,खिलती कलियों और किसी के गेसूओं में लगने वाले सुलगते फूल का........और इसी उम्मीद में बरस रहे उस संगीत का........जो मुझे तुम्हारी ताल और धुन पर मदहोश करती जा रही........बरसों से....!!

10 comments:

Udan Tashtari said...

वाह!! सुन्दर भावाव्यक्ति! बधाई..

हें प्रभु यह तेरापंथ said...

अति सुन्दर



आपका आभार एवम हार्दीक मगलभावनओ के साथ
हे! प्रभु यह तेरापन्थ
मुम्बई-टाईगर

SELECTION & COLLECTION

Unknown said...

anand aa gaya.............
din sudhar gaya aaj ka...........
waah
waah !
abhinandan !

M VERMA said...

"एक सपना.....भोर के कुहासे में चमकती उम्मीद की शबनमी बूंदों का........"
स्वप्निल सा मै पढ गया आपकी यह रचना ..... बहुत सुन्दर ... वाह

वाणी गीत said...

शब्दों ने भावों को उडेल कर रख दिया है ...बधाई ..!!

puja kislay said...

bahut khoobsoorat likha hai...resham si fisalti hai kaali raat is lekhne mi...aur jaado paida karti hai.

डॉ .अनुराग said...

उफ़ फ.....एक नज़्म सी सफ्हो पे उभरी ....ओर बहाती चली गयी ....सब कुछ अपने साथ ...लगा जैसे रूह तक भीगी हो......
one of your best post.....

ओम आर्य said...

कोई कोई रात ऐसी होती है तनु जी, की न नींद...न ख्वाब...कुछ भी नहीं गुजरता उन रातों से..सिर्फ यादें गिरती रहती हैं बहार नीम के पत्तों पर...

अबयज़ ख़ान said...

इस सन्नाटे में बसती मासूमियत तुम्हारी कशिश जितनी दिलकश तो नहीं पर तुम्हें ज़रुर मेरे ऱुखसार तक ले आती है......

आपकी उर्दू बहुत खूबसूरत है। मज़ा आ जाता है। क्या खूब लिखती हो।

गौतम राजऋषि said...

"वक्त के सफ्हें उन नज़्मों मे तौले जाते हैं.....जो इश्क की कैफियत को बयां करती"

लगा कभी जो मैं कहना चाहता था, यहाँ लिखा गया स्वयमेव...