Monday, August 10, 2009
ऐसा क्यों लगता है मुझे....
कभी कभी मुझे लगता है....जैसे......शायद मेरी ही आंख की भीगी कोर बासी हो गयी....या फिर इन आंसुओं में उतना नमक नहीं रह गया....जो तुम्हारे सिर्फ एक बार मुस्कुराने की मेरी इल्तिज़ा को तुम तक पहुंचा सके......मैं नहीं जानती.....पर ना मालूम क्यों ये लगता है....कि तुम्हें शायद ये फिरदौस भी झूमती नज़र आती हो....और शायद तुम्हारे लिए ये फज़ां भी मुस्कुरा जाती हो......पर तुम.... तुम्हारी मुस्कुराहट......जो कभी मेरी रगों की बसाहट थी.....आज एक अजीब जलज़ले के बीच मुझे छोड़ गयी है.......कुछ बाहर निकलने को बेचैन..हर पल उमगता सा रहता है.....मानों बस इस पल तुम्हें देखूं ... और धक्क.....ऊफ्फ, कुछ नहीं कह पाऊं, शायद....लेकिन इसी पल दो पल की कशमकश में मुझे मेरे चेहरे का वो खोया हुआ नूर भी याद आ जाता है.....जो तुम्हारी एक झलक.....एक मुस्कुराहट से आफताब हो जाया करता था....पर आज वो खोया नूर तुम्हारी मुस्कुराहट का मुंतज़िर.....बस एक उम्र तकता है .......और थकता भी नहीं......शायद, वो ये नहीं जानता कि ये कभी ना बरसने वाली मुस्कुराहट.....अब मुझमें महताब का आईना नहीं देख पाती.....या फिर....क्या मैं ये मान लूं कि..... कभी मेरे इर्द-गिर्द खिलने वाले चमन का उन्वान अब इस क़ाबिल नहीं कि उसमें से कोई अपने पहलू को गुलज़ार कर सके..........क्या हुआ जो मेरे भीतर बसे कोलाहल का तलातुम मुझे डुबोने की पुरज़ोर कोशिश करता है पर मेरे अंदर बसे तुम्हारे अक्स के क़तरे क़तरे को मिटा नहीं पाता.....कुछ हो सा गया है मुझे.....क्या हो गया है मुझे.......क्या मैं अपने आप से कहीं खो गयी हूं......इतनी खामोश क्यों हो गयी हूं......वो सारा वक्त जो मुझ पर हर लम्हा बरस रहा था......तुम्हारे आलम में तुम्हारे अक्स को मुज़मयिल करता बस अपनी रवानगी में बहता ही जा रहा था......आज गुज़रा ज़माना क्यों कहला रहा है......आज तो उस बरसात में से एक मुस्कुराहट भी मयस्सर नहीं....तुम्हारी मुस्कुराहट के मुन्तज़िर मेरे ये हालात अजब हो गए हैं......तुम्हारा सिर्फ मेरे पीछे खड़े होने का एहसास भर भी मुझे फलक़ तक पहुंचाने के लिए काफी था.......क्या तुम ये नहीं जानते कि.....ये मेरे थके बाजू इतने घायल कभी ना थे.....कभी फलक तक उड़ान भरने का हौसला रखने वाले ....आज तुम्हारी दहलीज़ तक जाकर वापस क्यों लौट आते हैं......मेरी थकावट ना जाने क्यों मेरी लाचारगी सामने ला जाती है.....लेकिन क्या ये सिर्फ लाचारगी है या फिर कुछ और .....पर कुछ भी हो मेरे हमनवाज़ को हैरानियत नहीं देते......जो मेरे इस खूने मंजर का साक्षी है.....जहां से उसका उन्वान है...और जहां मेरा शफ़क मुझसे जुदा हुआ......या खुदा तू ही बता......ये मेरी परीक्षा है या फिर मेरी बेचारगी का सबब भर........!!
लेबल:
तुम....
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
11 comments:
ये मेरी परीक्षा है या फिर मेरी बेचारगी का सबब भर........!!
सार्थक प्रश्न ~
अच्छी रचना
तुम्हारी मुस्कुराहट......जो कभी मेरी रगों की बसाहट थी.....आज एक अजीब जलज़ले के बीच मुझे छोड़ गयी है.......कुछ बाहर निकलने को बेचैन..हर पल उमगता सा रहता है.....मानों बस इस पल तुम्हें देखूं ... और धक्क.....ऊफ्फ, कुछ नहीं कह पाऊं, शायद....लेकिन इसी पल दो पल की कशमकश में मुझे मेरे चेहरे का वो खोया हुआ नूर भी याद आ जाता है.....जो तुम्हारी एक झलक.....एक मुस्कुराहट से आफताब हो जाया करता था....
kamal hai...
खूबसूरत अल्फाज़ ..!!
आखरी पंक्तिया फिर उसी नज़्म की रवानगी का असर रखती है .जिसकी आदत इस पन्ने पर आकर पड़ चुकी है .क्यों लिखती हो ऐसा ??????
कुछ समझ नहीं आता अनुराग जी...बस कई बार भावनओं का उन्माद इतना बहकाता है कि ये सारे शब्द बस बहते चले आते हैं....मैं खुद भी कई बार सोचती हूं....कि क्या हो गया है मुझे....!!
वाकई ऐसा लगा कोई ट्रांस में बुदबुदा रहा हो …
शायरी, कविता, नज़्म, डायरी या ब्लौग?
...या फिर ये सब कुछ एक संग??
मेजर साहब...अगर इतना ही होश होता तो इतनी ग़फ़लत भरी ज़िंदगी नही होती...पता नहीं क्या है ये सब...बस एक रवानगी होती है,कुछ लम्हों की,और कुछ नहीं...
:-)
kamaal का लिखा है आपने............. हर शब्द जैसे कुछ bolta huva है......... हर pankti जैसे कोई kahaani chipaaye baithi है दिल में...........jawaab को talashta हर शब्द जैसे खुद ही jawaab dena चाहता है.......... लाजवाब लिखा है..... seedhe दिल में utarta huva ..........
आज तो उस बरसात में से एक मुस्कुराहट भी मयस्सर नहीं....तुम्हारी मुस्कुराहट के मुन्तज़िर मेरे ये हालात अजब हो गए हैं......तुम्हारा सिर्फ मेरे पीछे खड़े होने का एहसास भर भी मुझे फलक़ तक पहुंचाने के लिए काफी था...
तनु तुम्हारी क़लम में हर बार इतना दर्द क्यों होता है?
bas ek parikhsa...utirn kar lijiye....!
Post a Comment