Monday, June 8, 2009

तुम्हारा सुर्ख रंग मेरा भी रंग........

नाराज़ हो तुम मुझसे......या इस नीली रौशनी से.....जो बिखरती तुम्हारे भी दरम्यां.....मेरी उदास तन्हाई से.....भोर में....तन्हाई के इस बियाबां आसमां में जब सुर्ख सूरज अपनी रौशनी बिखेरने की कोशिश करता है....थोड़ा सा डरता है......इस नीली रौशनाई से....मुट्ठी भर फैलाव मांगता है तुमसे......ये सुर्ख रंग.....जो दब जाता तुम्हारी रौशनाई से......चूमना चाहता है.....तुम्हारी इस खिड़की को......तुम्हारी बंद सपनीली आंखो को.......आवाज़ नहीं आती तुम तक........कोई दूर से तुम्हे पुकारता है.......अल सुबह जगाने को......अपने आगोश मे भरने को...... पर तुम सिमटते,अपने पर्दे में.....बंद खिड़की के पीछे....उसी अँधेरे में........जिसका सहारा लेकर....छिप जाते.....मेरे सामने से.....वो अंधेरा दूर करना चाहता है.....ये सुर्ख रंग......जिसमें तुम डूब जाओ और भर लो अपने अंदर.....कुछ इस तरह का ही लाल रंग.....जो दूर करदे मेरे इस घनघोर अंधकार के विस्तार को.......क्योंकि तुम और मैं अलग नहीं.......तुम्हारा सुर्ख रंग मेरा भी रंग........

20 comments:

डॉ .अनुराग said...

सुर्ख है सहरे सूरज भी......
जरूर कोई दिल डूबा होगा .

ओम आर्य said...

तुम्हारा सुर्ख रंग मेरा भी बहुत खुब....जबाब नही इन पंक्तियो का....लजावाब

Puja Upadhyay said...

तीरगी है कि उमड़ती ही चली आती है
शब् की रग रग से लहू फूट रहा हो जैसे

मंजर बेहद खूबसूरत है...बयानी उससे भी जियादा

Science Bloggers Association said...

आपकी भावनाएं पाठकों तक पहुंचने में सक्षम हैं। बधाई।

-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

रंजू भाटिया said...

अदभुत सुन्दर

P.N. Subramanian said...

इतने कम शब्दों से उपन्यास का निर्माण ! अद्भुत

Dr. Ashok Kumar Mishra said...

बहुत अच्छा लिखा है आपने । भाव और विचार का तालमेल शब्द संसार को प्रभावशाली बना रहा है ।

मैने अपने ब्लाग पर एक लेख लिखा है-फेल होने पर खत्म नहीं हो जाती जिंदगी-समय हो पढें और कमेंट भी दें-

http://www.ashokvichar.blogspot.com

सुरभि said...

तुम और मैं अलग नहीं.......तुम्हारा सुर्ख रंग मेरा भी रंग........
अति सुन्दर

अरुण पालीवाल said...

.......क्योंकि तुम और मैं अलग नहीं.......
वाह... वाह ! बहुत खूब !

अनिल कान्त said...

kya tareef karun....lajwab

Anonymous said...

तुम्हारा सुर्ख रंग मेरा भी रंग........
मासूम अभिव्यक्ति को सलाम् --

Anonymous said...

क्या कहें......बस इतना ही....लाजवाब....

साभार
हमसफ़र यादों का.......

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

"सुर्ख है सहरे सूरज भी,
जरूर कोई दिल डूबा होगा"
वाह...आपका ब्लाग बहुत अच्छा लगा....

Sajal Ehsaas said...

likhne kaa ye poora ka poora andaaz hi bahut umda hai...peshkash sachmuch kamaal ki...aur lekhan to shaandaaar hai hi


www.pyasasajal.blogspot.com

Ek ziddi dhun said...

kavitaii

अमिताभ श्रीवास्तव said...

wah, bahut khoob likhaa he aapne/
shabdo ke pryog me bani maalaa..//

अबयज़ ख़ान said...

लाजवाब लाइन हैं..दिल टूटा है..या डूबा है। अच्छा दर्द उकेरा है आपने।

प्रकाश गोविंद said...

कुछ तो है इन पंक्तियों में ..
कि बार-बार पढने को दिल करता है !


मुझे तो कविता की मानिंद लगी रचना !

अगली पोस्ट का इन्तजार रहेगा !

मेरी शुभकामनाएं !

आज की आवाज

Aadarsh Rathore said...

sahaj lekin gehre bhaav
achhi rachna

shashi said...

चुप लेटे मदान
इतवार की सुबह-सुबह एक अजीब घटनाक्रम में पता चला कि ब्रजेश्वर मदान को पैरालिसिस हो गया है। फोन किया तो कोई उठा नहीं रहा था। दो-चार फोन इधर-उधर खटकाने के बाद स्थिति का पता चला। घर उनके कुल दो बार ही जाना हुआ था लेकिन बिना किसी से रास्ता पूछे स्कूटर ठीक उनके घर के सामने ही खड़ा हुआ। वहां पता चला कि यहां उनकी देखरेख के लिए कोई है नहीं लिहाजा उनके साले साहब ने उन्हें अपने ही यहां रख लिया है। वहां पहुंचने पर मदान साहब को देखा।

यह जिंदादिल इन्सान, जिसे एक बार पैर में चोट खाने के अलावा मैंने कभी बीमार नहीं देखा था, जो न जाने किस समय से हर शाम दारू का पूरा पौआ नीट और एक सांस में ही पीने का आदी रहा, मेरे सामने पड़ा था कमर पर बच्चों की हगीज पहने, बच्चों जैसा ही निस्संग चेहरा लिए, सोया हुआ इस तरह कि जागने भर को भी स्फुरण शरीर के भीतर पैदा नहीं हो रहा था।

एक हाथ अजीब तरह मुड़ा हुआ था। उस पर मैंने अपना हाथ रखा तो कोई हरकत नहीं हुई। फिर माथा छुआ और दूसरा हाथ सहलाया। नाम बताया तो चेहरे पर कहीं कोई भाव नहीं। मन में खुटका हुआ कि यह नाराजगी तो नहीं। फिर शायद वहां मेरे होने की बात दिमाग तक पहुंची होगी। हरकत वाले हाथ से हाथ थाम लिया, आंख खोलकर रोने सा मेरी तरफ देखा और बाईं तरफ जरा सा खुल पा रहे मुंह से मुअइं जैसा कुछ कहा।

इस आदमी के बारे में मैं क्या कहूं। बहुत लोग बहुत तरह से बहुत कुछ कहेंगे। कहने-सुनने में ब्रजेश्वर मदान जो हैं सो हैं। पढ़ने-लिखने वाले लोग उन्हें जीनियस कहते हैं। उनकी कई कहानियां और कुछ कविताएं भी ऐसी हैं जिन्हें पढ़कर अपने आसपास की दुनिया को आप नए तरह से देखने लगते हैं। यह जीनियस का ही काम है। लेकिन उनका लिखा पढ़ने से ज्यादा मजा मुझे उनके साथ होने में, उनकी बातें सुनने में और उनसे बकवास करने में आता रहा है। मुझे इतना भयंकर रोना आया कि क्या कहूं। थोड़ी देर और वहां बैठा, फिर भाग खड़ा हुआ।

घर पहुंचकर शाम होने को थी कि शिवसेवक सिंह आ गए। इलाहाबाद में नगरपालिका पार्षद हैं। बातों-बातों में इलाहाबाद ही पहुंचा देते हैं। मदान साहब का दुख भरमाने में उनकी बातें बड़े काम आईं। फिर सड़क पर यूं ही चाईं-माईं भटकते एक लंबी कार में आते मृगांक शेखर, उनकी पत्नी और पीछे बैठे खालिद पति-पत्नी मिल गए। सहारा से मेरे हटने के बाद ये दोनों लोग मदान साहब के सबसे करीबी थे। मदान साहब अपनी सारी गालियां इन्हीं के मार्फत मुझ तक पहुंचाते थे। कब ठीक होगे ब्रजेश्वर मदान? कभी इतने ठीक होगे कि हम साथ मिलकर वह किताब कर सकें, जिसके बारे में इतनी बातें की हैं?
chandrbhushan