Monday, February 9, 2009

रंग और तुम....

तुम्हें नही मालूम लेकिन मैं रंग भरना चाहती हूं तुम्हारे अंदर......वो सारे रंग जो तुमने जबरदस्ती अपने अंदर से निकाल कर फेंक दिए कि कही गलती से मुझसे दोबारा मुलाकात ना हो जाए....वो सारे रंग जो मुझे नज़र आते हैं.......मुझे मालूम है तुम्हें भी दिखते हैं.....क्योंकि वो सारे रंग उतना ही तुम्हारे करीब है जितना मेरे.....क्योंकि वो सब तुम्हारे भी चारों तरफ है जो कुछ मेरे अंदर और भीतर.....तुमने उस नीले रंग को उखाड़ फेंका क्योकि वो मेरे ख्वाहिशों के आसमां का एहसास कराता है.......वो सारे हरे रंग निचोड़ दिए क्योंकि वो मेरी हसरतों के गलीचों की याद दिलाते हैं.....तुम वो सुर्ख और पीले मेपल के पत्तों सा रंग भी अपने आस-पास नहीं रखना चाहते.......क्योंकि वो कभी न कभी तुम्हें ले जाते है......मेरे साथ उन्ही गलियारों में....जहां से तुम मेरे साथ गुज़रना नहीं चाहते....वो लाल रंग तुम्हारे गुस्से को दिखाता है.....लेकिन तुम तो कूल दिखना चाहते हो......क्योंकि तुम्हें तो सबको ये बताना है कि तुम पर कोई फर्क नहीं पड़ता....हां कुछ ऐसा ही चाहते हो तुम....लेकिन लाख कोशिश कर लो कुछ नहीं कर सकते ....वो रंग इस कायनात के हैं....जा ही नहीं सकते.....तुम एक ब्लैक एंड व्हाईट ज़िंदगी बसर नही कर सकते....क्योंकि ये रंग तो मेरे फेवरेट हैं.....फिर तुम्हारे फेवरेट कैसे हो सकते हैं....यकीनन तुम्हारे लिए नहीं बिल्कुल नहीं ....क्योंकि तुम तो उस काले रंग की मेरी परछाई से भी दूर जाना चाहते हो....और मैं तुममे वो सारे रंग दोबारा भरना चाहती हूं....जो तुम चुपके से बिन बताए चुरा के ले गए......और ले गए.....मेरे सारे रंग,कूंची और वो रंगीन प्लेट.....जिसमें तुम्हें देखते ही ना जाने कहां से रंगो की बरसात हो जाती थी.....मैनें कभी रंग खरीदे नहीं सिर्फ तुम्हें देख लेने भर से.....भर जाती थी मैं रंगो की उस चमकीली दुनिया में.....इसलिए आज तक ये आसमां मुझे नीला चमकीला....घास के मैदान..हरे से.....और यूंही रंग बरसाते आबशार बरबर ही खींचते हैं.....क्योंकि मुझे अब भी नज़र आता है.....तुम्हारे बाहर निकलते ही ....तुम्हारे साथ-साथ चलने वाला एक इंद्रधनुष जिसमें तुम्हें रिफ्लेक्ट करते सारे रंग एक साथ दिखते हैं.......बिल्कुल ऐसा जैसे तुम रंगो की खान .........कौन सा रंग बताऊं तुम्हें कि कौन सा फबता है.....तुम्हारी वजह से तो वो रंग मुझे अज़ीज हो जाता है....मेरा मन गमक जाता.....उसी रंग को पाने के लिए मचल जाता है.....मुझे रंगो की रंगीनियों में शराबोर होने का मन करता है......बिल्कुल उस चमकीली पतंग की तरह....जो तुम्हारे घर की छत से उड़ाने पर पहाड़ों और हरियाली के बीच अपने अनूठे रंगों की पहचान अलग से बनाती इतराती और इठलाती फिरती होगी.......और....पता नहीं और भी बहुत कुछ पता नहीं कितने रंग.....सब तुम्हारे संग.....ऐसे नहीं.....जैसे मैं .......बेरंग.....एक बार फिर वापस वो सारे तुम्हारे इंद्रधनुषी रंग.......मेरे लिए...तुम्हारे लिए

11 comments:

Vinashaay sharma said...

bahut hi sunder rang bharey aapney

शोभा said...

waah bahut sundar likha hai.

वर्षा said...

rango ki bhasha khoob khili

डॉ .अनुराग said...

रंगों में डूबी ..एक सतरंगी पोस्ट......कही गहरे तक रंग छोड़ गयी

P.N. Subramanian said...

इसे कहते हैं रंगा रंग कविता. सुंदर रचना. आभार.

रंजू भाटिया said...

रंग और दिल की अदभुत भाषा .बहुत सुंदर लिखा है आपने

Smart Indian said...

वाह भई, वसंत आया तो रंग क्यों न बिखरते.

Harshvardhan said...

achchi post hai

Harshvardhan said...

achchi post hai

Unknown said...

बहुत अच्‍छा। सच कहा आपने कभी कोई इतना साथ हो जाता है कि चाहकर भी आप उसे खुद से अलग नहीं कर पाते। रंग कायनात का हो या प्रेम का हमेशा साथ रहता है।

BrijmohanShrivastava said...

नीला रंग ख्वाहिशों का आसमान ,हरा रंग हसरत के गलीचे ,{{ मेरा दुर्भाग्य कि मेपल का दरख्त ,या झाडी या बेल जो भी होती हो }} लाल रंग क्रोध ,/ इसके अलावा पूरा पत्र पढ़ा कल्पना बहुत अच्छी की गई है