यह ख़बर थोड़ी पुरानी है...लेकिन जिस वक्त इसे मैंने पढ़ा था तभी सोचा था कि इस बारे में ज़रुर लिखूंगी...लेकिन इस बीच मुंबई को दरिंदों ने दहला दिया और ये बात कहीं दब गई.....ये सिर्फ खबर नहीं है...ये उस अंधेरे की बात है जो हमारे सरकारी डॉक्टर्स (वो, जिन्हें भोले भाले लोग भगवान के बराबर पूजते है) की लापरवाही के चलते 38 लोगों की ज़िंदगी में पसर गया, हमेशा के लिए....
राजस्थान के सूरतगढ़ आईकैंप में कुछ बुज़ुर्ग पहुंचे थे अपनी आंख का इलाज़ करवाने और ऑपरेशन करवाने.....कैंप भी लगा,ऑपरेशन भी हुआ,लेकिन आंखे ठीक होने के बजाए कुछ ही घंटो बाद उनमें दर्द होने लगा और मवाद पढ़ गया....वो सारे बुज़ुर्ग जो आंखों के अच्छा होने की आस लिए अपने घर गए थे.....एक बार फिर लौटे उन्हीं डॉक्टर्स की चौखट पर.......
आंखों की बिगड़ती हालत को देखकर कुल 48 मरीज़ों को पीबीएम अस्पताल पहुंचाया गया जिसके बाद सिर्फ पांच मरीज़ों की आंखे खतरे से बाहर बताईं गईं और बाकी के मरीज़ों को एसएमएस अस्पताल पहुंचाया गया.....
और इस बीच मरीज़ों से एक सहमति पत्र पर दस्तखत करवा लिए गए---
मेरी आंख का मोतियाबिंद का ऑपरेशन सूरतगढ़ कैंप में हुआ है। पहली पट्टी के बाद इलाज के लिए मुझे पीबीएम अस्पताल में भेजा गया। यहां जांच के बाद डॉक्टरों ने बताया कि आंख में मवाद पड़ गई है। अब आंख में इंट्रा वेटेरनल इंजेक्शन लगाए जाएंगे। इसके बाद रोशनी आ सकती है और नहीं भी। मैं पूरे होश-हवास में पीबीएम हॉस्पिटल के डॉक्टर्स को इलाज की सहमति देता/देती हूं।’
शनिवार रात जिस वक्त मरीज़ों से दस्तखत करवाए जा रहे थे वो देखने की हालत में नहीं थे...ऑपरेशन के बाद मरीजों की आंखों में आई खराबी को चिकित्सकीय भाषा में एंडोप्थोलाइटिस इन्फेक्शन कहा गया है।ऐसे इन्फेक्शन की कई कारण हो सकते हैं। इनमें प्रमुख रूप से प्रयोग में ली गई दवाइयों-सोल्यूशन में जीवाणु होना, ऑपरेशन थियेटर का दूषित वातावरण, ऑपरेशन के दौरान काम में लिए गए कपड़े गंदे होना या मरीज के कपड़ों में जीवाणु होना आदि हैं। चिकित्सकों का मानना है कि मरीजों की ओर से इनमें से कोई कमी होती भी तो उससे इक्का-दुक्का मरीज ही प्रभावित होते।
हालांकि रविवार सुबह नौ बजे सीएमएचओ एचएस बराड़ व एसडीएम रोहित गुप्ता ने ऑपरेशन थियेटर का निरीक्षण किया। उपकरण भी जब्त किए गए हैं।लेकिन ये सारी कवायद अब तक उन बूढ़े लोगों की आंखो की रौशनी वापस लानें में नाकामयाब रही.....
सवाल सिर्फ यही कि सरकारी होने का मतलब हमेशा ऐसा ही क्यों होता है.....हम चिल्लाते सिर्फ तभी क्यों है जब अपने ऊपर गाज गिरती है...क्या ये सरकारी डॉक्टर्स तब भी इतनी ही लापरवाही दिखाते अगर उन बुज़ुर्गों में कोई इनका अपना मां-बाप या सगा संबधी होता......क्यों हम एक घिस-पिटे ढर्र पर यूंही चलते रहते हैं.....क्यूं नहीं हम खड़े होते....जब हमारे सामने कुछ ग़लत हो रहा होता है.....शायद सब एक जैसे ही हैं.....सिर्फ अपनी बारी का इंतज़ार करते हैं और......बस यूं हीं......यूंही इंतज़ार करते हैं।
ज्यादा से ज्यादा क्या होगा.....शायद सरकार की तरफ से थोड़ा सा मुआवज़ा दे दिया जाएगा.....उन डॉक्टर्स पर थोड़ी बहुत कार्यवाही कर दी जाएगी और उसके बाद ये ज़िंदगी यूंही बोझिल फिर से घिसटती जाएगी.....लेकिन कोई भी उन लोगों का दर्द बांटने नहीं जाएगा जो अब भी अपनी ज़िंदगी के वापस रौशन होने का इंतज़ार कर रहे हैं, लेकिन ये नहीं जानते कि वो कभी अपनी खुशियों को दोबारा हासिल कर पाएंगे या नहीं.......क्योंकि डॉक्टर्स तो सहमति पत्र लेही चुके हैं कि आंखो की रौशनी जा भी सकती है और वापस आ भी सकती है।