कभी कभी कागज़ पर अनायास ही कुछ लकीरें खिंचती चली जाती हैं ...टेड़ी मेड़ी...अनगिनत महीन लकीरें.....इस जहन के नक्शे पर गढ़ती सी महसूस होती हैं......जाने क्या कहती......क्या छिपातीं .....जाने क्या उकेरतीं....भारहीन बनाती ...कभी बोझिल करतीं.....ये ऐसी...कुछ बारीक लकीरें...सिर्फ कागज़ ही नहीं....मेरे मन में भी गढ़ती हैं....अजीब लगता है पर.....वोही लकीरें सुलगती भी दिखती हैं.....जो मुझे सुलगाती हैं...मेरे अन्दर....एक ही तो तस्वीर होती है....जिसकी खुशबु बाहर तक बिन कहे आ जाती है.....किसी लोबान से उठते धुंए की तरह...और फ़क़त उसी जहाँ के अन्दर की पनाहों को कंही चीर जाती हैं ये लकीरें......अंदर....बनती बिगड़ती बटोही सी.......भटकती और भटकातीं भी....हर रह गुज़र से दरयाफ्त करतीं...अन्दर खोये इक तुम्हारे अक्स की तलाश करतीं...और एक बार फिर.....अपनी अनजान राह चलती.....ये लकीरें.....!!
12 comments:
किसी लोबान से उठते धुंए की तरह...और फ़क़त उसी जहाँ के अन्दर की पनाहों को कंही चीर जाती हैं ये लकीरें...
ye panktiyan dil ko chhoo gayi...
http://dilkikalam-dileep.blogspot.com
अंतर्द्वंद को दर्शाती अच्छी प्रस्तुति....कभी कभी ऐसे ही खिंच जाती हैं लकीरें ..
shabdo ko sunuyojit roop se dhaal kar man ki dasha ko darshati achhi rachna.
कोई सूरत बनी...?
कोशिश....कोशिश...और कोशिश....जारी है...!!
वाह क्या बात है बेहद सुन्दर............
Kya kuchh mila, kuchh bana?
अच्छी लेखनी है आपकी तनु जी...
एक अच्छा लेख!
पढकर अच्छा लगा!
ये लकीरें किसी बेहतरीन कलाकार के ब्रश स्ट्रोक्स की तरह एक खूबसूरत चित्र खींच रही हैं. तुम्हारी खुशबू लिए एक प्यारी रचना.
हाँ, भूल गयी थी...कल देर रात महुआ पर एक पोस्ट लिख रही थी...तुम्हारी बड़ी याद आई :) तो आज सुबह सुबह पढ़ने पहुँच गयी :)
:-)
सबसे पहले तो ब्लाग का नाम ही बेहद खूबसूरत है.. महुआ.. :)
लकीरो को इस तरह खीचने के बाद बस मन यही कहता है कि या तो किसी की एक तस्वीर बन जाये या तो आडा तिरछा किसी का नाम लिख जाये..
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