Thursday, December 3, 2009

कुछ भी तो नहीं पता....

ऐसा लगता ही नहीं कि जिंदगी से रंग उड़ गए हैं.....कभी कभी काली-सफेद उदासियों के बीच से सतरंगी हसरतों ने तमाम दबाब के बावजूद अपने हक़ की छाप छोड़ी है..... हां कई दफा..... ज़िद... तौहीन... ज़िल्लत...कसमसाहट....कुछ नहीं बल्कि सब कुछ जुड़ने से पहले ही टूटने का एहसास.....या खुदा यहां तो नासूर से इन मर्ज़ों ने तमाम नीम-हक़ीमों....पीर-फकीर....के चक्कर कटवा दिए....पर कमबख्त ना मालूम कहां से ये नामुराद इश्क़ अपनी ज़ड़ें कहीं गहरे जमा करता चला गया....जो अब पेशानी पर पड़ने वाले बलों के साथ सिकुड़ती आंखों से नज़र ही नहीं आतीं....ये इश्क है...या फिर इश्क में ही डूबे रहने का मोह...या फिर कोई नाफिक्री ज़िद्द.....कभी नहीं....कोई नहीं समझ पाया.....एक जोश...जोश की तलाश....क्या करुं...उसका जौहर कहीं का नहीं छोड़ता कमबख्त....मेरी खोयी सांसों में रवानगी की बयार पैदा करता....इस दुनिया-जहां की फिक्र को पीछे रखता...बड़ी अदावत के साथ अपनी सांस बुलंद करता.... यूं तो बदमिज़ाज़ी के किस्से ना सुने....ना जाना....पर सिर्फ सुना....एक बदमिज़ाज लड़की......अब अच्छा सा लगने लगा है.....ज़िंदगी मानों बड़ी तफ्सील से जीने की लत पड़ गयी है...ये इंतज़ार ऐसा....जिसने इफ़रात में वक्त का दान दिया.....ना कोई हड़बड़ाहट....ना कोई चौंकना.....ना आगे बढ़ना...ना पीछे छूट जाने का ही अफसोस....एक गज़ब विस्तार मिलता जाता है...हर मोड़ पर....सांसे भी तो पहचान कर चुकी हैं...कब थमना है...कब डूबना है...और कब कलेजे को चीरते बस बाहर ही निकल पड़ना है......सांसों का बढ़ना,थमना,डूबना...कसकर एक दूसरे के आवेग को थामना... मानों जैसे कुछ पीछे छूटता जा रहा है...कुछ कहना था...शायद शब्द कम पड़ गए......कुछ रह गया....हां शायद कुछ देना भी तो था...बस हाथ थामने की मियाद खत्म हो गयी......कुछ अटपटा सा होता जा रहा है...पर क्या.....कोई नहीं बता पाता....मेरे अंदर मचती उथल-पुथल......कहीं मुझे कुछ कर गुज़रने से रोकना चाहती है......मेरे सपनों को वो सतरंगी ग़लीचा बस उठाए सा घूम रहा है....कहां जा रहा है...कहां जाना चाहता है....कुछ नही पता....कुछ भी नहीं पता........

मैं कहां जा रही हूं....मेरे सपने...मेरी अकुलाहट......

हां एक अच्छी नींद का भी इंतज़ार........

7 comments:

शायदा said...

अच्‍छा है:::सपनों का सतरंगी गलीचा और अच्‍छी नींद का इंतजार। हाथ थामे रखने की मियाद खत्‍म होने पर भी उस अहसास को बचाए रखना बढि़या है, कई रंग दिखे यहां।

Udan Tashtari said...

सुन्दर प्रवाह,,बेहतरीन भाव!!! उम्दा अभिव्यक्ति..

दिगम्बर नासवा said...

शब्दों से जैसे खेल रहीं हैं आप ....... आवेग का उन्मुक्त प्रवाह ......... बहुत खूब लिखा है ........

अबयज़ ख़ान said...

इस इश्क के चक्कर में बीमार हैं कई ।
शायद कोई हकीम इनका भी इलाज करे।।

प्यार में बेचैनी का इससे बेहतर नमूना नहीं हो सकता...

गौतम राजऋषि said...

आज दिनों बाद "महुआ" पर हलचल दिखी...कहाँ थीं आप?

हमेशा की तरह उलझन कि नज़्म की फेहरिश्त में रखूं कि एक कवितानुमा खत...?

"हाथ थामने की मियाद" वाली बात मन को छू गयी।

डॉ .अनुराग said...

जानती हो ...ये शब्द ही है जो कभी कभी हांफते जेहन को एक सांस भरके उसे फूंक देते है ......उंघते जमीर को चुटकी काट के जगा देते है .ओर मुझ सरीखे को कभी कभी सलीके से जीना सिखा देते है ....

मसलसल भागती ज़िंदगी मे
अहसान -फ़रामोश सा दिन
तजुर्बो को जब
शाम की ठंडी हथेली पर रखता है
ज़ेहन की जेब से
कुछ तसव्वुर फ़र्श पर बिछाता हूँ
फ़ुरसत की चादर खींचकर,
उसके तले पैर फैलाता हूँ
एक नज़्म गिरेबा पकड़ के मेरा
पूछती है मुझसे
"बता तो तू कहाँ था?

KULDEEP SINGH said...

nice as you