लोग कहते.....क्या करना चाहते हो......ज़िदगी मे कितना आगे जाना चाहते हो.....सबका....हरकिसी का अपना कोई ना कोई सपना ज़रुर होता है...कोई ऐसा नहीं........जिसका कोई सपना नहीं होता.......मेरे अंदर भी कई सपने....जिन्हें मैं साथ-साथ बड़ा होते देखती....उन्हें और बढ़ा होने के लिए अपने अंदर पंख लगाना चाहती.......वो सारे सपने मेरे साथ साथ इतने साल तक बड़े होते नज़र भी आते.....
पर.....फिर उनके साथ-साथ अंतर्लोक की सैर करते करते...उन्हें हौसला देने के लिए कोई.....नज़र आने लगता......एक जानी पहचानी दुनिया से मैं अपने सपनों की दुनिया से तालमेल करती आगे बढ़ती जाती....लेकिन शायद बहुत धीरे.....कई बार मेरे सपने छोटे लगते.......
जो कुछ मेरे पास......मैं उसीके साथ बहती......उस बहते वक्त को थामना चाहती.....हर वक्त.......उसके ओर-छोर को पकड़ कर.....हवा में उड़ने के ख्वाब देखती.......वो थामते वक्त की लहराती नदी....जिसमें सवार मैं सारी दुनिया को देखने निकली थी.....वो मुझे हौंसला देते हुए......उस नाव से भी पार दुनिया दिखाती....
पर..अचानक ही मुझे मंझधार में छोड़ कर आगे बढ़ गयी......उस नदी में......कमबख्त..... जिसका पानी बेसाख्ता अपने आवेग में मुझे लेने को उछाल मारता है.......वो लहरे जो मुझे वापस छोर तक पहुंचाने की कशमकश में.....हरदम भरपूर...पुरज़ोर.....भरसक कोशिश करती..... मुझे पल-पल डुबोती.....ना जीने देती ना ही मरने..... लेकिन मैं आज भी......उसी सतरंगी....लहरीली नदी पर सवार....... सुदूर कैसी तो पहचानी सी तुम्हारी एक दुनिया है...... उसी का ओर-छोर दुलारना चाहती हूं.....उदासी में लबरेज़......तुम्हारे अंदर से निकली एक सुरीली...मदहोश गुनगुनाहट हो जाना चाहती हूं......फिज़ाओं में महकती खुशबु बन जाना चाहती हूं....
एक घर होना चाहती हूं..... और हां, पता नहीं क्यों तुम्हारी ज़िदगी की गज़ल का सबसे रंगीन क़ाफ़िया बन जाना चाहती हूं........
पता नहीं तुम्हें समझ आय़ा या नही.......
मैं आज भी सिर्फ और सिर्फ तुम्हें ही चाहती हूं.....
तुम्हारा साथ चाहती हूं.....
13 comments:
pahli baar aapke blog par aana hua hai rangeen kafiya achcha laga....
आपके लिखने का अंदाज़ बहुत ही निराला है. हमें एक पुराना गीत याद आ गया "सपने में सजन से दो बातें, इक याद रही इक भूल गए" बड़ा ही प्यारा गीत है. आभार...
phir bhi ye zid hai k ham zakhme- jigar dekhenge.
दिल की बात को बहुत खूबसूरत लफ्ज़ दिए हैं आपने...बधाई..
नीरज
ऐसा लगता है ....थोडी शिकायत है...थोडा अहसास कराने की जिद.....पर इश्क फिर भी जिंदा है....धड़कता हुआ ....
nadi si tere sath bahna chahtee hun....tun hath thame main yeh chahtee hun....main kya chahtee hun...kahi na kahi aap ki post apni si lagee
मुहब्बत तो मुझे उनसे थी हीं
जाने क्यूँ वे मुहब्बत तलाशते थे
एक घर होना चाहती हूं..... और हां, पता नहीं क्यों तुम्हारी ज़िदगी की गज़ल का सबसे रंगीन क़ाफ़िया बन जाना चाहती हूं........
bahut khoob
सुंदर है ये रंगीन क़ाफ़िया...सपने, उम्मीदें और कुछ उदासी...
इन शब्दों के रंग बड़े हसीन हैं
phir usi bevafa pe marte hain
phir vahi zindgi hamari hai (GALIB)
सुन्दर प्रस्तुति . आभार.
काफिया ही तो किसी ग़ज़ल की जान होती है, और यदि वह रंगीन हो तो सोने पर सुहागा.
काफिया ही तो सर चढ़ कर बोलता है और लोगों को वाह! वाह!! करने को मजबूर कर देते हैं,
पर ध्यान रहे शायर भी तो बहुत सोच समझ कर ही अपनी ग़ज़ल का काफिया तय करता है.
चन्द्र मोहन गुप्त
aapne itna accha likha hai ki k kuch kahne ko mere paas shabd hi nahi hai .. mera salaam hai apki lekhni ko ..
prem ki itni gahri aur sundar abhivyakti ke liye mere paas koi shabd nahi ji ...
aapko meri dil se badhai ..
meri nayi kavita padhkar apna pyar aur aashirwad deve...to khushi hongi....
vijay
www.poemsofvijay.blogspot.com
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