Thursday, April 16, 2009

शायद.....सिर्फ एक शब्द या फिर कुछ और....

शायद..........पता नही सिर्फ शब्द भर है.....या फिर पूरी की पूरी ज़िंदगी को रवानगी देने की कोशिश करता कोई अजूबा सा एहसास.......शायद....शायद...शब्द ही ऐसा है.....जिसके पीछे लोग शायद अपनी ज़िंदगी गुज़ार सकते हैं.......सिर्फ इस एहसास को लिए कि शायद कल अच्छा हो.........शायद कल फिर सुबह हो....शायद कल हमें ये ना देखना पड़े......शायद कल वो आजाए........शायद उसे समझ आ जाए......शायद जी पाए.....शायद वो बच जाए......शायद वो कामयाब हो जाए.......कल किसने देखा फिर भी शायद का इंतज़ार तो सभीको....... शायद....शायद....शायद ऐसा हो....शायद वैसा हो.......घरवाले भी हमेशा से ही सांत्वना देने में सबसे आगे......बच्चों को बचपन से ही सिखाया जाता है.....कि कोई बात नहीं.....आज ऐसा नहीं हुआ........कोई बात नहीं शायद कल आपको कुछ और अच्छा मिल जाए....... ये शाय़द जो बचपन से हमारे साथ ही बढ़ा होता है......शायद ही हमारी ज़िंदगी से बाहर जा पाता है...लेकिन फिर भी वो आस जो ये जोड़ता है........वो कहीं और से नहीं मिल पाती........क्योकि ये जो शायद है.....वो कई बार को और नहीं बल्कि हमारे अंदर बैठा हमारा ही प्रतिरुप हमें समझाता है........क्योंकि जब तक शायद की संभावना हमारे अंदर से नही उठती.........बाहर दुनिया कितना भी समझा ले.......वो उस शायद का एहसास नही दिला सकती........और ये शायद हर बार हारने के बावजूद एक सुकून का एहसास करवा सकता है........क्योंकि इसी शायद की वजह से कल की आस कभी मरती नहीं......वो कल जिसके बारे में किसी को भी नहीं पता.........किसी को भी.........कल तो दूर.........किसी को अपने अगले कदम का एहसास नही होता....फिर कल तो बहुत दूर की बात होती है.....लेकिन इन सबके बावजूद हम जीते हैं......हम प्यार करते हैं.....हम लड़ते हैं......काम करते हैं......हारते हैं......कभी काम करतेकरते.....कभी प्यार करते करते.....पर फिर भी......उस शायद को नहीं जुदा कर पाते.....अपनी ज़िंदगी से.....अपने एहसास से ....अपने वजूद से......क्योंकि हम हारना नहीं चाहते......हम अली अज़मत की तरह गाना नहीं बनाते....ना रे ना.....हम आबिदा की तरह.....ओ मियां......कहकर.....उस अन्जान आवाज़ को पुकार नहीं पाते.....हम शायद चीख नहीं पाते....हम शायद किसी सिगरेट के धुंए में गुम होना नहीं चाहते.....उस हर एक घूंट में डूबना नहीं चाहते...जो शायद इंतज़ार ही किसी के डूबने का करती है...........क्योंकि हम सभी शायद कहीं ना कहीं जीना चाहते हैं........उस कल का इंतज़ार करना चाहते हैं.....जो सिर्फ एक शायद के भरोसे हमें ज़िंदा रख जाता है........सांसो को रवानगी का एहसास करा जाता है.........वो शायद हमें एक बार फिर जिंदा रख जाता है.......उस एक हसीं ज़िंदगी के इंतज़ार में.......
शायद.........!!!!

9 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

अच्छा मंथन किया है।

P.N. Subramanian said...

शायद यह आलेख बहुत अच्छा लगा!

डॉ .अनुराग said...

सांस लेना भी कैसी आदत है !.....गुलज़ार साहब कहते है ना ...

ओम आर्य said...

उम्मीद होगी कोई, वर्ना रात ढले कोई आता नहीं ....

संध्या आर्य said...

shaayad me hi jindagee tamaam ho jatee hai .......
par is shaayad ko jindagee ke panne me sumaar hi nahi karani chahiye...............

वर्षा said...

कुछ उम्मीद तो रहती ही है..इस शायद में

admin said...

अरे वाह, एक शब्द को लेकर आपने बेहद गम्भीर विवेचन किया है। और हाँ, आपकी आशावादी शैली प्रेरक है।

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अभिनय के उस्ताद जानवर
लो भई, अब ऊँट का क्लोन

कुमार विनोद said...

बाकी सब तो ठीक है, मगर शायद का इस्तेमाल जानलेवा है, 'बाकी सब ठीक' इसलिए कि जो ठीक होता है वही बाकी होता है- ये आपके शायद का ही कमाल है. जानलेवा इस अंदाज में कि हाय-आपने तो हर दिल की बात कह दी. अच्छा लगा आलेख- शायद का खाका बड़ी गहराई से खींचा है.

Puja Upadhyay said...

इस एक शायद की उम्मीद पर जिंदगी गुजर जाती है...शायद वो दर्द जाने शायद वो लौट आये. खूबसूरत लिखा है शायद के रंगों के बारे में.