Wednesday, April 1, 2009
क्या चाहते हो तुम.........
क्या तुम महसूस कर पाते हो….. इस अंतहीन सन्नाटे को......जिसमें घड़ी की टिक-टिक होती है......कंप्यूटर के कीबोर्ड की बुरी आवाज़ होती है.....चारों तरफ बिखरी ज़िंदगियों की खलिश......और मेरी सांसो की आहट होती है....और इसके अलावा कुछ नही होता....इन खामोश पलों मे कोई है जो मेरे अंदर शोर मचाता है.....मेरी सांसों की आवाज मेरे कानों तक ले जाता है......इस भीड़ में अकेला बनाता है.....डराता है.....और एहसास कराता है....मेरे अधूरेपन का और तुम्हारे वजूद का.....इस कमरे में बन जाती है एक दुनिया.......बाहर के एहसास को भुलाती और बताती.....एकाकीपन के जीवन को.......जीवटता के साथ जताती कि.....यही ज़िदगी है......पीना चाहते हो क्या...इन खामोश पलों की हर ज़र्रे में गूंजती आशनायी को....मेरे साथ.....ना....मैं यूंही सोते-जागते मरना नहीं चाहती .....तुम्हें नहीं मालूम ज़िदगी जीने की कितनी प्यास है....कितनी शिद्दत बढ़ गई है......मैं कहां से जताऊं.....नहीं चाहिए ये सन्नाटे और ये खामोश आवाज़ें......जो दबा नहीं पाती मेरे भीतर के कोलाहल को .....उस अदम्य संसार को जो तुम्हारे पैरहन बसता........तुम्हीं सें जिंदा होता और तुम्हीं में सिमटता.......ये दुनिया गोल.....पर रास्ता नहीं दिखता तुम तक पहुंचने का.......कहां कहां घुमाते.....और खुद कहीं गुम हो जाते......क्या चाहते हो तुम.....क्योंकि ये घुटती हुई ज़िदगी..... किसी मौत से कम नहीं.....जहां ज़िंदा रहने का एहसास.... ऑफिस......अखबार और दरवाज़े की घंटी कराए......पता ही नही क्या चाहते हो तुम......सिर्फ एक बार बताओ.................
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तुम........
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11 comments:
दिल के हालातों को बहुत खूबसूरती से उतारा है यहाँ ...बहुत ही उम्दा लिखा है आपने
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
उम्दा अभिव्यक्ति!!
bahut hi sanjeeda
ye andaaz bhi bahut hub raha,sunder
touching
तुने मुझे अपने से क्यों लिपटाया हुआ है.....
मैंने तो भर बहते पानी में जाना है .....
कोई था जोमेरा जो मुझ से खो गया है ..
शायद उससे ये किनारा छुट गया है
इस कमरे में बन जाती है एक दुनिया.......जैसे पुरे कथन का सूत्रवाक्य यही है..पिंजरे में कैद किसी पक्षी का रुदन ???
लिखती रहिये एक अजीब सा सकून मिलता है आपको पढ़कर .
एकाकी मन की व्यथा कितने सहज/सरल शब्दों में कह डाला. आभार
खलिश....और मेरी सांसो की आहट होती है....और इसके अलावा कुछ नही होता....इन खामोश पलों मे कोई है जो मेरे अंदर शोर मचाता है.....मेरी सांसों की आवाज मेरे कानों तक ले जाता है......इस भीड़ में अकेला बनाता है.....डराता है.....और एहसास कराता है....मेरे अधूरेपन का और तुम्हारे वजूद का.....इस कमरे में बन जाती है एक दुनिया.......बाहर के एहसास को भुलाती और बताती.....एकाकीपन के जीवन को.......जीवटता के साथ जताती कि.....यही ज़िदगी है.........
यही सच है जीवन का जिसमे इंसान सिर्फ अकेला होता है अपने तन्हाईयो से जुझता हुआ ..........
बहुत ही खुब ही खुबसुरत रचना है......
तुम्हें नहीं मालूम ज़िदगी जीने की कितनी प्यास है....कितनी शिद्दत बढ़ गई है......मैं कहां से जताऊं.....नहीं चाहिए ये सन्नाटे और ये खामोश आवाज़ें......जो दबा नहीं पाती मेरे भीतर के कोलाहल को.....जब तक यह कोलाहल है तब तक जीने की इच्छा बाकी है ..कोई क्या चाहेगा यह बात कहाँ पता चल पाती है ..अपने में hi घुमती आवाजे अक्सर इस तरह से बाते करती है और यूँ ही दिल को कुछ पल का सकून दे जाती हैं ...
शायद पलट कर देखने की जरूरत है.उसके कंठ में कोई कील ...
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