Monday, March 30, 2009

एक पल.....और तुम.....

एक पल.....खाबिदा होता है......सहमा सा.... ठिठक कर आता है.....बिछी हुई बर्फ पर बहके चिनारों में......बर्फ से फिसलती....सर्पीली सड़कों में.......भालूपोस्ट पर दरकते कदमों में....गोल-गोल घुमावदार सड़कों पर रुकते....अपनी किसी तस्वीर को तुम्हारी कैद में जाते देख के..... याद के लोफ्ट में कहीं गुमी हुयी तुम्हारी और अपनी परछायीं में....... बारिश में गुमशुदा मिट्टी की सौंधी खुशबू से.....तुम्हारी सिगरेट से सुलगती हवाओं से...... पार्क में रखी खाली बेंच.......कुछ लंबे सूखे पेड़ और.....तुम्हें देखते बस... वहीं छूट जाती कुछ तस्वीरों से...... एअरपोर्ट पर किसी आवाज़ से डरकर तुमसे लिपटते.....राह में चलते लोगों को देखते..... झरोखे से गाड़ी के भीतर और गाड़ी के झरोखे से बाहर झाँकने से.........तुम्हारे किसी जंगल की याद और अपने यादों के जंगल से......एक तुम्हारा कमरा और उस कमरे मे बसती उस खुश्बू में......तुम्हारे ग्लास पर चिपकी किसी एक बूंद और अपनी आंख में महसूस करती उसी बूंद की खलिश में...... एक पल ठिठककर खोजता है...... कभी अपनी जमीन....... और कभी थोड़ा सा आसमान........ क्या मैं अपनी ज़िंदगी का गुमान इस पल के लिए करती हूं....कुछ सहमें...सिमटे और छूटे..... बाकी पलों के लिए....तुम्हारे साथ......!!!!!!!

5 comments:

संध्या आर्य said...

एक पल ठिठककर खोजता है...... कभी अपनी जमीन....... और कभी थोड़ा सा आसमान........
जिन्दगी का सफर इतना लम्बा क्यों होता है कि ये लमहे पीछा करने लगते है न चाहते हुये भी .........
अच्छी रचना है.

डॉ .अनुराग said...

लगा जैसे लफ्जों के समंदर में उतर गया हूँ.....ओर डूबता नहीं....बेमिसाल .....!

P.N. Subramanian said...

क्या कहें क्या लिखें कह कर लिखें कि लिख कर कहें. बस आभार.

Shikha Deepak said...

शब्दों का सुंदर संयोजन...........हम तो खो से गए हैं इनमें।

ओम आर्य said...

पूरी जिंदगी को अगर झाँक कर देखें तो कुल मिला कर ज्यादा समय नहीं होता जिसे हम याद कर सकें और उस पे गुमान कर सके, अगर कुछ वैसे पल आपको जिंदगी ने दिये हैं तो गुमान करने का पूरा हक़ है आपको.