Monday, March 9, 2009

तुम्हारे संग.....

कितनी अन्जान जगह होती हैं जहां से पांव रखकर गुज़र जाना होता है.....जिनसे कभी कोई मतलब नहीं होता...बस बिन छुए...बिन मतलब पार होना होता है....उन खामोश राहों पर कोई आवाज़ देकर भी नही रोकता....कोई रास्ता बताने वाला भी नही होता....आपकी निगाहें कभी किसी की खामोशी का इतनी बेसब्री से इंतज़ार भी नही करती.....उन रेतीली,पथरीली ज़मीन पर किसी नमीं युक्त तुम्हारे जैसे धरती के टुकड़े की आस नही होती....शाय़द कुछ ऐसी ही होती हैं अन्जानी राहें...जहां से मेरे साथ-साथ सभी कभी ना कभी गुज़रते होंगे....पर कई बार इन पथरीली राहों पर यूंही चलते-थकते....इस टूटते बदन के साथ सांसे भी साथ छोड़ने का दम भरने लगती हैं...और इन बोझिल होती दोपहरी में....गर्म थपेड़ों के साथ वो ज़िंदगी की गर्माहट को अपने संग लिए जाने को मचलती हैं....और मैं यूंही किसी रेतीली ज़मीं की एक दोपहरी पर बिन पानी मछली की तरह फड़फड़ाती नज़र आती हूं....कि शायद इसी दरो-दीवार के बीच से तुम्हारी यादों के गुज़रते कारवां की मुझ पर नज़र पड़े और मेरी इन उखड़ती सांसो को तुम अपनी सांसों से दोबारा ताज़ा कर दो जिससे इस दहकती ज़मीं पर कोई नर्म और गीला ग़लीचा इन सांसों पर सुर्खाब के पर लगाके मुझे ताज़ी हवा के झोंके सा उड़ा ले जाए......तुम्हारे संग...!!

2 comments:

ओम आर्य said...

एक ही तलाश थी
एक ही रास्ता था
रहगुजर गुजरते भी थे उन्ही रस्ते से
वे आवाज भी देते थे
पर मिलते नहीं थे वे
कहीं भी
जाने क्यूँ

dinesh kandpal said...

वक्त ही ज़ख्म बन जाता है
जब साथ नहीं देता
नहीं तो संगीत सुनते हैं
वक्त काटने को.....
जय हो आपकी।

सुन्दर लिख रही हैं देवी आप...