इंसान जो चाहता है......,उसे वो हमेशा नहीं मिलता,,,,कहीं न कहीं कुछ कमी रह जाती है और कभी-कभी इंसान की इच्छाएं कुछ बड़ा आकार लेने लगती हैं।
पहले उसे ये लगता था कि शायद ऐसा सिर्फ उसके साथ ही होता है,लेकिन शायद थोड़ी नादान थी वो,..... कुछ दिखता ही नहीं था, दुनिया को समझ नहीं पाती थी...लेकिन अब देखते, समझते शायद उसे मज़ा आने लगा है...दुनिया को देखने में.....समझने में.......अपने लिए लड़ने में........और लड़कर जीतने में।
अब, जब सबकुछ जानकर, देखकर वो समझदार हुंई है तो उसे बुरा लगता है लोगों को देखकर,......
थोड़ा उलझे से,सीमित सोच के दायरे से बाहर ना निकलने को कटिबद्ध....छोटी बातो पर ज़िंदगी को बर्बाद करते..लड़ते-झगड़ते, बिला वजह की बातों में वक्त बर्बाद करते....।
हां......उसे लगता है कि जैसे वो ही ज्यादा ही समझदार हो गई है। उसे सब्र के साथ फक्र भी होता है क्योंकि ज़िंदगी के सिर्फ साढ़े पांच साल लगे, समझदार होने में और इस दुनिया को समझने में....और अब ऊपर उठकर नीचे देखने में...........।
बहुत झीकती थी वो इन साढ़े पांच सालों के दौरान,लेकिन इसी दौरान दुनिया ने इतना महीन पीसा कि किसी चक्की की जरुरत अब जिंदगी में दोबारा नहीं पढ़ने वाली। बहुत कोफ्त होती थी उस दौरान...उसे सोचकर कि कहां आ गई वो.........,क्या सोचकर आई थी, क्या हो रहा है, क्या इतनी बुरी दुनिया होती है,क्या बाहर के लोग सिर्फ बुरे ही होते हैं,या संसार में इन लोगो के अलावा भी कुछ और प्रजातियां होती हैं।
लेकिन, अब उसे लगता है...,वो सिर्फ एक दौर था,जो गुज़र गया और दे गया उसे ज़िंदगी के बेहतरीन सबक़....यंत्रणाएं तो बहुत थी हर किस्म का मानसिक टॉर्चर भी था,लेकिन उस सबके बावजूद जो सुकून आज उसके सीने में अंगड़ाइंया लेता है....... वो सबसे ज्यादा कीमती भी है और आगे की ज़िंदगी के लिए एक आरामदायक सफर का सामान भी।
आज जब वो पीछे पलटकर निगाह डालती है तो सोचती है कि शायद बेवकूफ थी वो......और हां उसे ये भी लगता है जैसे...सिर्फ साढ़े पांच साल पहले ही उसका जन्म हुआ है, शायद तब ही पहली बार दुनिया को देखा, समझा और जाना....................
उससे पहले वो नितान्त अबोध , बिल्कुल उस नवजात बच्चे की तरह जो सिर्फ अपने आसपास सिर्फ और सिर्फ अपनी मां को ही पहचान सकता है।
उसका वो छोटा सा घर, छोटा सा शहर, वो गलियां, मौहल्ला, कॉलेज सबकुछ इतना निश्छल और पवित्र है कि वहां किसी मंदिर और मस्जिद की ज़रुरत ही नहीं पड़ती।
और हां......पहली बार जब अपने हौंसलो की उड़ान के साथ उसने यहां कदम रखा था ..तब उसे अगाध विश्वास था कि एक दिन वो अपनी मंजिल तक ज़रुर पहुंचेगी....लगता था जैसे कोई नहीं रोक सकता उसे........और पहला पांव रखते-रखते दुनिया नज़र भी वैसे ही आ रही थी, जैसा उसने सपना देखा था....जैसे वो दुनिया को देखना चाहती थी और अपने सपनों में अपने आप को अपनी मंज़िल तक पहुंचते देखना चाहती थी।
लेकिन दूसरा पांव जब रखा तो वो सपनों से एक दम उलट था,,,उसका यथार्थ की धरती से जैसे सामना हुआ...और हर दिन एक नया अनुभव जो सुखद से ज्यादा दुखदायी होता था....हर दिन एक ऐसी कड़वी सच्चाई से सामना होता था जो उसकी दुनिया की हद को छूकर भी नहीं जाता था
सबकुछ एकदम से उलटा कुछ और ही नज़र आता था...कई बार तो समझ से बाहर होती थीं बातें...लोग क्या कहते हैं,वो क्या समझती है...वो क्या समझाते हैं....वो क्या समझना चाहती है.....लेकिन आज उसके लिए कुछ भी अजीब नहीं है।
सिर्फ उन लोगों पर अट्हास करने के लिए मुफीद जगह नहीं मिल पाती।।
उसे अफसोस भी होता है......सिर्फ इतना अफसोस होता है कि अपनी मंजिल तक पहुंचने की हसरतें लिए जो पहला कदम उसने रखा था उसे डिगाने के लिए कई हसरतें सामने आईं और उनमें से कई कामयाब भी हुई.......इसी कशमकश में जो जो उसका आत्मबल और आत्मविश्वास टूटा उससे उबरते -उबरते उसे साढ़े पांच साल लग गए और दूसरा कदम बढ़ानें में,वो अपने आप को अक्षम महसूस करती रही।लेकिन लगातार ये भी सोचती थी कि मुकाबला तो करती रहेगी ,चाहें जो हो...क्योंकि वापस लौटने जैसी सोच उसके पास नहीं थी।
वो चाहकर भी बुरा नही बन पाई..इस दोगली दुनिया की तरह....।
आज उसे बहुत अच्छा लगता है......,उसी दुनिया को देखकर,.....खुशी भी मिलती है,और मन भी करता है कि चीख-चीख कर वो कहे कि देखो आज तुम लोगों ने तपा-तपा कर मुझे कुंदन बनने के करीब तो पहुंचा ही दिया है....सबकुछ इतना पारदर्शी बना दिया है तुम लोगों ने...कि अब कहीं कोई धोखा नहीं दे सकता कहीं कोई भेद हीं नही नज़र आता...सब चालाकी सारी सच्चाई उसे स्पष्ट नज़र आती है।
धन्यवाद तुम सभी का...........
9 comments:
तनु जी बहुत अच्छा लिखा है ....बहुत ही सार्थक और सच्चा प्रयास ...मुझे बहुत अच्छा लगा पढ़ कर
तनु शर्मा जी
भावों के आवेग को आपने बड़े शांत मन से पिरोया है
, जिन्दगी तो है ही वो संघर्ष जो अनुभवों और पीडाओं को झेल कर सबल/सक्षम बनती है
आपने भी लिखा है.....
देखो आज तुम लोगों ने तपा-तपा कर मुझे कुंदन बनने के करीब तो पहुंचा ही दिया है....सबकुछ इतना पारदर्शी बना दिया है तुम लोगों ने...कि अब कहीं कोई धोखा नहीं दे सकता कहीं कोई भेद हीं नही नज़र आता...सब चालाकी सारी सच्चाई उसे स्पष्ट नज़र आती है।
धन्यवाद तुम सभी का...........
आपका
विजय
मुबारक हो,
आखिर......
आज (तुम) लोगों ने तपा-तपा कर मुझे कुंदन बनने के करीब तो पहुंचा ही दिया है....सबकुछ इतना पारदर्शी बना दिया है तुम लोगों ने...कि अब कहीं कोई धोखा नहीं दे सकता कहीं कोई भेद हीं नही नज़र आता...सब चालाकी सारी सच्चाई उसे स्पष्ट नज़र आती है....
शुभकामनाएं कि ऐसा ही हो....
दरअसल जब भी मुझे ऐसा लगता है कि अब मैं आदमी को समझने लगा हूं कोई मुझे बना ही जाता है....
हर शब्द बस अपने आपमें जादू है
---यदि समय हो तो पधारें---
चाँद, बादल और शाम पर आपका स्वागत है|
बहुत अच्छा लिखा है आपने..अच्छा लगा पढ़ कर...
निशब्द कर दिया आपके लिखे ने ..बहुत सुंदर ..
नये साल की मुबारकबाद कुबूल फरमाऍं।
achhe bhaav aur prastutikaran .
lekin aur likhaa zaana chahiye ,anubhavon ke baare mein jisse koi samajhdaar ho saktaa hai
aur jaldee seekh saktaa hai.
इस लड़की को तो मै भी जानता हूँ ओर इस दुनिया को भी......कुछ नही बदला है.....बस लड़किया बदलती रहती है .चलाकिया ,मक्कारिया .धूर्त पाना वही है....बल्कि अब तो लोग इतने हुनरमंद हो चले है की आइना भी धोखा खाने लगा है
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