ख्वाबों की सरज़मीं पर सिमटते मेरे ये अंदाज़....
आज बहक जाने को जी चाहता है....
पता नहीं फिर कभी.......गुल्ज़ार होगी ये चिलमन या नहीं...
...उलझते.....सिमटते ये ख्वाब....
हमेशा सैर कराते किसी दुनिया की...
जिसकी सरज़मीं पर पांव रखते ही,
शायद शादाब हो जाती है,मेरी ये ज़िंदगी
कुछ ऐसा ही तो चाहती हूं मैं
लेकिन पता नहीं क्यों
हकीकत में आते ही सिमट जाती हूं.......
और वापस चली आती हूं ,
अपनी उसी दुनिया में,
कभी न लौट आने के लिए...................................!!!!
7 comments:
बहुत उम्दा भावपूर्ण रचना.
बहुत सुन्दर रचना है।
"हकीकत में आते ही सिमट जाती हूं......." बहुत ही सुंदर. कविता होने के कारण इस से अधिक कुछ कहा भी नही जा रहा है. आभार.
हकीकत में आते ही सिमट जाती हूं.......
लाजवाब रचना...शब्द सीधे दिल में उतरते हुए...वाह...
नीरज
लेकिन पता नहीं क्यों
हकीकत में आते ही सिमट जाती हूं.......
सच कहा !
हकीकत में आते ही सिमट जाती हूं.......
और वापस चली आती हूं ,
यही सच्चाई है ...सुंदर भाव हैं इसके
बहुत-बहुत शुक्रिया आप सभी का..
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