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Wednesday, December 10, 2008

ख्वाब...

ख्वाबों की सरज़मीं पर सिमटते मेरे ये अंदाज़....

आज बहक जाने को जी चाहता है....

पता नहीं फिर कभी.......गुल्ज़ार होगी ये चिलमन या नहीं...

...उलझते.....सिमटते ये ख्वाब....

हमेशा सैर कराते किसी दुनिया की...

जिसकी सरज़मीं पर पांव रखते ही,

शायद शादाब हो जाती है,मेरी ये ज़िंदगी

कुछ ऐसा ही तो चाहती हूं मैं

लेकिन पता नहीं क्यों

हकीकत में आते ही सिमट जाती हूं.......

और वापस चली आती हूं ,

अपनी उसी दुनिया में,

कभी न लौट आने के लिए...................................!!!!