Thursday, August 21, 2008

हक़ीकत...

क्या है सच.....?
ये हममें से कोई भी नहीं जानता।
और शायद जानने की कोशिश भी नहीं करता।
और कई बार जानकर भी अंजान हो जाता है।
कई चीज़ें ऐसी होती हैं,जिन्हें समझने के लिए हमें सोचना पड़ता है और कई बार सोचने की जरुरत भी नहीं पड़ती ,सबकुछ क्रिस्टल की तरह साफ नज़र आने लगता है।लेकिन मेरे साथ ऐसा नहीं होता.....लेकिन तुम्हें सोचना नहीं पड़ता??
तुम्हारे सामने सब कुछ साफसाफ अपने आप चलकर सामने आ जाता है,फिर ऐसा मेरे साथ क्यों नहीं होता???
तुम्हीं ने बताया था कि रिश्ते कुछ नहीं होते ,आंखे बंद करके देखो तो चारों तरफ रिश्तों की जगह शीशे नज़र आते हैं।बिल्कुल विश्वास नहीं होता कि आंखे बंद करके कैसे देखा जा सकता है??
लेकिन तुमने कहा कि देखो तो ज़रुर दिखता है,सारे शीशे दरअसल हम सबका रिफ्लेक्शन दिखाते हैं,उसमें हमारा अक्स नज़र आता है,लेकिन वो अक्स नहीं जो हम देखना चाहते हैं बल्कि वो,जो हम नज़रअंदाज़ करना चाहते हैं।और इन्हीं शीशों में दरअसल हमें हमारा कमीनापन,वहशीपन,मतलबपरस्ती और वो कालापन नज़र आता है,जो हम असल ज़िंदगी में देख नहीं पाते।
उन शीशों को या फिर यूं कहे उन रिश्तों को उनकी नज़र से देखें तो उनकी जगह बिल्कुल ठीक नज़र आती है,क्योंकि वो अपनी नज़र से ,अपने मतलब से और अपनी जगह बिल्कुल ठीक होते हैं।दरअसल वो ,वो नहीं होते जो हम उन्हें देखना चाहते हैं..........................सच में बहुत ही अजीब सा कॉम्पलिकेटड सा लगता है,ये सब।
लेकिन सच तो ये है हर इंसान मतलबी होता है,अपने मतलब के लिए अपनी ज़िंदगी अपने हिसाब से जीने की कोशिश करता है।किसी पर किसी का कोई एहसान नहीं................क्या प्यास लगने पर कोई बिना पानी के रह सकता है या फिर बिना खाए किसी का गुज़ारा हो सकता है?
जवाब है......नहीं
फिर झूठे वायदे और एहसान क्यों?
हर कोई अपने लिए जीता है,सबकी अपनी पर्सनल लाइफ होती है,इंसान सोता,जागता,खाता,पीता सिर्फ और सिर्फ अपने लिए ही करता है ।उसकी खुद की ज़रुरतें उसे कमाने के लिए मजबूर करती हैं और फिर भी हम सभी एक दूसरे पर एहसान जताने की कोशिश करके शायद अपने आप को तसल्ली देने की कोशिश करते हैं या फिर शायद अपना अहम संतुष्ट कर पाते है कि मैनें अपनी ज़िंदगी में फलां के लिए ये किया और उसके लिए वो किया .............!!!!!

3 comments:

अजय शेखर प्रकाश said...

तनु जी, आपका 'हकीकत' पढ़कर हकीकत का अहसास हो गया। हालांकि इससे पढ़ने के बाद सबसे पहले मैं यही कहूंगा कि आपके अंदर संवेदनशीलताएं कूट-कूट के भरी है। जिंदगी जटिलताओं का ही दूसरा नाम है। अगर जिंदगी आसान हो जाए तो जीने का मजा ही खत्म हो जाएगा। आपकी कुछ बातों से असहमति जरूर है, फिर भी अच्छा लगा,लेकिन मैं कहना ये चाहता हूं कि हमारे काफी करीब कुछ लोग ऐसे भी जिन्हें हम मतलबी नहीं कह सकते। आप जरूर जानना चाहेंगी कि आखिर वो कौन हैं। वो है- मां! मां और संतान के रिश्ते में आपको शीशे नज़र नहीं आएंगे। पता नहीं आपने इस रिश्ते की गहराई को अब तक क्यों नहीं समझा? मैं ज्यादा विस्तार में नहीं जाना चाहता,पता नहीं आपके ब्लॉग में जगह है भी या नहीं। रिश्तों को समझने के लिए रिश्तों में झांकने की भी जरूरत पड़ती है। ऊपर से देखने पर गहराई का अंदाजा लगाना थोड़ा मुश्किल है। बहरहाल,
मतलबी इंसान के बारे में आपके संकेत साफ हैं। लेख अच्छा है और आप बधाई की पात्र हैं।-अजय शेखर प्रकाश, वॉयस ऑफ इंडिया

महुवा said...

अजय जी,सबसे पहले तो आपका धन्यवाद कि आपने वक्त निकाला और मेरा लिखा पढ़ा...साथ ही उसे सराहा भी। आपने मां का ज़िक्र किया कि मेरे लिखे में मां को नहीं शामिल किया जा सकता,बिल्कुल दुरुस्त फरमाया है आपने।क्योंकि मां रिश्तों,नातों,सही,गलत और दुनियावी चीज़ों से बहुत ऊपर होती है,बल्कि उसकी जगह तो शायद भगवान भी नहीं ले सकता.....मां तो एक एहसास है जिसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है और जिया जा सकता है.......मां के लिए तो शायद मुझे शब्द ही नही मिल पाएंगे,जो मैं कभी कोशिश भी करुं कि थोड़ा बहुत भी अपनी संवेदनाएं बाहर निकाल पाऊं....

अजय शेखर प्रकाश said...

तनु जी, धन्यवाद आप मुझे मत दीजिए, धन्यवाद
आप अपनी लेखनी को दीजिए। ये आपकी लेखनी का कमाल ही तो था, जो मुझे वक्त निकाल कर पढ़ने पर मजबूर किया। आपकी भावनाएं पढ़कर साफ लगता है कि आप अपनी मां के काफी करीब रही हैं। आपने सही कहा-मां एक एहसास है। इस एहसास में समुची दुनिया समा जाएगी। मां के बिना जिंदगी के मायने बदल जाते हैं। एक बार फिर कहूंगा कि आपकी संवेदनाएं जब बाहर आती हैं तो एक सुंदर आकार लेती हैं। ये गुण बहुत कम पाया जाता है। ...माफ करेंगी, मेरे पास आपकी तारीफ के लिए शब्द कम हैं। अजय शेखर प्रकाश, वॉयस ऑफ इंडिया