Monday, December 3, 2012

मक्तबे इश्क़ का दस्तूर.....

कमरे के बीचों बीच रखी ग्लास टेबल पर रखा स्कॉच का ग्लास...और उस पारदर्शी ग्लास के पार से आती पीली मद्धम रौशनी परावर्तित होकर प्रिज्म जैसा आभास दे रही थी....फैब इंडिया का जलता लैंप और उसकी भी पीली मद्धम रौशनी कमरे में एक उदास बैकग्राउंड का भरपूर एहसास कराने के लिए काफी थे......गोया पीली रौशनी और उसकी ज़िंदगी में कोई अबूझ रिश्तेदारी हो.....और हां मद्धम सी आवाज़ लिए आबिदा भी कहीं उन शामों की हिस्सेदार थीं....

उसकी ज़िंदगी के अनछुए हिस्से की तरह वक्त के किसी कोने में खड़ा लैंप,उसकी अकेली शामों का हमदम,खूबसूरत कटिंग का ये ग्लास और उसकी जिंदगी के रंग को हर पल महसूस कराती ये पीली मद्धम रौशनी उसकी हर शाम के साथी थे....(अनकहे)

जहां अक्सर आबिदा उसकी शामों को गुलज़ार करने के लिए इश्क गुनगुनातीं थीं......

वो शायद किसी के इंतज़ार में थी....
नहीं, वो तो हर शाम ही किसी के इंतज़ार में रहती थी...
वो कहती थी कि उसे ज़िंदगी का इंतज़ार था....

और वो इंतजार मुसलसल चलता था...कभी खत्म ना होने के लिए....
उसके लिए...
वो जिसे ये मद्धम रौशनी पसंद नहीं थी.....पर जिससे वो दिन के उजाले में मिल नहीं सकती थी..... वो जिसे उसका यूं सरे शाम पीना पसंद नहीं था....पर वो,जो उसके नशे को उतारने की तरकीब भी नहीं जानता था....वो जिसके इंतज़ार में उसकी मुद्दतें गुज़र रहीं थी....पर वो उसके इंतज़ार की घड़ी को देखकर भी अनदेखा किया करता था......वो जिसके दर्द में डूबी ये तमाम शामें अब ज़िंदगी का हिस्सा बन चुकी थीं....पर उसकी जिंदगी का हिस्सा उन शामों में दस्तक नहीं दिया करता था.....

ऎसा नहीं कि जिंदगी ने कभी उस चौखट पर दस्तक नहीं दी....पर ऐसी कोई दस्तक नहीं हुई जिसके लिबास को, जिसकी आहट को, जिसकी सांसो को, जिसकी आमद को उसकी रुह पहचानती हो.....

वक्त के साथ साथ उसका इंतज़ार लंबा होता जा रहा था....और वक्त की ये लंबाई उसकी जिद्द को बढ़ाती जा रही थी....कहते हैं कि वक्त गुज़रता है तो अपने साथ कई चीजों को अनकहे ही साथ जोड़ता चलता है.....मसलन,

चारदीवारी के बीच अकेलेपन से बातें करने का हुनर....
बेवजह हंसी और अश्कों के उबाल के बाद सब्र का हुनर....
गुज़िश्ता पन्नों की स्याही की ताज़गी को महसूस करने का हुनर....
वक्त के सायों में छिपी परछाईंयों की खुशबु को जीने का हुनर....
अपनी ही बनायी दुनिया में इंतज़ार की रातों को जागकर काटने का हुनर.....
अलसाई सेज पर अपने आप को ज़ब्त करने का हुनर...
अपने ख्वाबों को हर रोज़ झाड़ पोंछ कर धूप दिखाने का हुनर....
जेठ की तपिश औऱ भादों के बरसने से अपना दामन बचाने का हुनर.....
अपनी तबियत,जज्बातों को बहकने से बचाने का हुनर....
कभी ना खत्म होने वाले इंतज़ार को जानते हुए भी हर रोज़ उसी इंतज़ार में शाम बिताने का हुनर....

वक्त की हर पाबंदी और तब्दीली शायद ज़िंदगी को जीने का हुनर नही सिखा पाती...शायद इसीलिए इंतज़ार में एक सौ सोलह चांद की रातें भी कम पड़ जाती हैं....और शिकवों की फेहरिस्त लंबी होती चली जाती है......स्कॉच ने जिंदगी को डूबने से बचाने का हुनर दिया या डूबती जिंदगी को उबारने का हुनर ये तो वो नहीं जानती पर हर शाम जब जलती स्कॉच उसके भीतर कुछ सुर्ख करती हुई उतरती तब आबिदा की आवाज़ की पुरज़ोर कशिश उसके इंतज़ार को और बुलंद करती है......हर शाम गली के मुहाने से गुज़रते दो आवाजें एक साथ सुनायीं पड़ती हैं....

मैं हूं मशहूर इश्क़बाज़ी में.....

4 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

वाह .... बहुत बढ़िया प्रस्तुति ...

डॉ .अनुराग said...

नशा तारी रहेगा देर तक !........इस मूड में लिखती हो तो कोई ओर नजर आती हो

रश्मि प्रभा... said...

http://bulletinofblog.blogspot.in/2012/12/2012-13.html

रश्मि प्रभा... said...

http://www.parikalpnaa.com/2013/01/blog-post_7800.html