एक डर ये भी....
एक तो विकासशील देश का
तमगा और उस पर दिन ब दिन घटते नैतिक मूल्यों के साथ ज़ीरो जेंडर सेंस्टिविटी, आज
यही हमारे समाज की पहचान है। हम उसी पितृसत्तातमक समाज में सदियों से रहते आने के
लिए अभिशप्त है, जो महिलाओं के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण रखता है और जिसके आधार
पर हमारी परवरिश, हमारी विचारधारा, हमारे हक़, हमारे फैसले और हमारी ज़िंदगी तय कर
दी जाती हैं। हम सभी जानते हैं कि देश में महिलाओं के प्रति अपराध लगातार बढ़ते जा
रहे हैं, लेकिन इन आंक़ड़ों को आखिर बढ़ा कौन
रहा है, कोई नहीं बताता..क्योंकि इसी समाज में हम-आप बसते हैं साथ ही हैवानियत के
राक्षस भी पनपते हैं और उसी समाज से हम न्याय और सहायता की उम्मीद रखते हैं।
आज समाज
का स्वरुप कन्या भ्रूण हत्या, दहेज हत्या, बलात्कार, एसिड अटैक, यौन शोषण. बंधुआ
मज़दूरी और लैंगिक असमानता से तय हो रहा है। निर्भया भी इसी समाज का हिस्सा थी,
बंगलुरु की बच्ची भी, लखनऊ की वो युवती भी, मैं भी और मुझसे पहले की वो तमाम शोषित, प्रताड़ित महिलाएं
भी जो गुमनामी के अंधेरों में छिपे रहने को मजबूर हैं। महिलाओं के प्रति
हिंसा का क्रूरतम व घृणित स्वरूप दिखाया जाता है बलात्कार के तौर पर जिसमें तमाम अमानवीय
मानकों को अपनाते, अपने पौरुष का प्रदर्शन करते हुए किसी के शरीर पर जबरन कब्ज़ा किया
जाता है और कभी पहचान मिटाने के उद्देश्य से तो कभी विरोध करने के एवज़ में उसकी
हत्या करने में भी गुरेज़ नहीं होता । लेकिन हम टेलिविज़न डिबेट्स में सिर्फ महिला
सशक्तिकरण की बहस सुनने के बाद अपनी ज़िम्मेदारियों से मुक्त हो जाते हैं और कहते
हैं कि कर भी क्या सकते हैं।
महिलाओं के प्रति अत्याचार, बलात्कार व यौन उत्पीड़न का आंकड़ा उत्तरोत्तर
बढ़ता जा रहा है, क्या ये महिला सशक्तिकरण के नाम पर कलंक नही है। हर रोज़
बलात्कार के कितने मामले दर्ज होते हैं किसी को फर्क नहीं पड़ता, कितनी महिलाएं
जला दी जाती हैं लेकिन पीड़ा नहीं होती...एसिड अटैक से विकृत हुए चेहरों की
ज़िंदगिया अंधेरे में गुज़र जाती हैं लेकिन कोई रौशनी वहां नहीं पहुंचती और इन
सबके अलावा घर-दफ्तर में होने वाले गुमनाम यौन शोषण के मामले तो खबर भी नहीं बन
पाते। यौन शोषण और बलात्कार जैसे जघन्य कृत्य की शिकार महिलाओं का जीवन उनके
लिए अभिशाप बन जाता है लेकिन हम इंटेलैक्च्युल डिबेट्स करते रह जाते हैं कि आखिर
कैसे रोकें, कौन से कानून बनाएं, कौन सी सज़ा तय की जाए। नतीजा,वही ढाक के तीन
पात। हर पल, हर दिन किसी की ना किसी महिला की कहीं ना कहीं बलि चढ़ रही होती है और
हम कुछ नहीं कर पाते।
देश में महिलाओं से संबंधित कानूनों की कोई कमी नहीं लेकिन क्या सिर्फ
कानून के होने से इस समस्या का समाधान मिला। देश की लगभग आधी महिलाएं निरक्षर हैं, कानूनी प्रावधानों से
अनभिज्ञ हैं, जागरूक नहीं है, अन्याय
के विरुद्ध आवाज बुलन्द करने का साहस नहीं जुटा पातीं। लेकिन उनका क्या जो जागरुक
हैं, जो सामने आती हैं, जो आवाज़ भी उठाती हैं क्या उनको न्याय मिल पाया।
हम कैसे स्वाभाव
से ही पुरुष वादी और सामंती सोच के रक्षक समाज से उम्मीद करें कि वो कभी महिलाओं की मन:
स्थिति समझ पाएगा, क्या कानून और न्याय पर इस पुरुषवादी समाज का असर नहीं पड़ता
होगा...सालों साल चलने वाली सरकारी कवायद इस लड़ाई को और बोझिल नहीं बनाती। पुलिस
की तहकीकात, वकीलों की ज़िरह और न्याय प्रक्रिया की सालों साल चलने वाली कार्रवाई
उन तमाम महिलाओं का मनोबल तोड़ने के लिए काफी है जो साहस जुटा कर आगे आती हैं और
कम से कम आवाज़ उठाने की ज़हमत करती हैं।
शायद ये सवाल ही गलत है..क्योंकि महिलाओं
के प्रति अगर अगर ज़रा सी भी संवेदनशीलता दिखायी गई होती तो आज अखबार बलात्कार और
शोषण की खबरों से लबरेज़ ना होते और यूंही सड़कों, चौराहों पर खून से सने बेजान
नंगे जिस्म नज़र नहीं आते। शायद हम रफू करके जीने के आदी हो गए हैं।
सिर्फ महिलाओं की अस्मिता ही पूरे परिवार
का मान मानी जाती है, परिवार की बदनामी का डर दिखाकर कई दफा महिलाओं को खामोश कर
दिया जाता है। जो बाकी महिलाओं पर दबाब डालने के लिए काफी होता है। वेश्यावृत्ति, इमॉरल
ट्रैफिकिंग एक्ट, 1986 के बावजूद वेश्यावृत्ति
में कोई कमी नहीं आई है। सामाजिक जागरूकता की कमी और लोगों में दिन-ब-दिन घटते
नैतिक मूल्यों व आचरण के कारण महिलाओं की स्थिति आज भी दोयम दर्जे की बनी हुई है। जिसके लिए हम, हमारा समाज और हमारी
व्यवस्था सब जिम्मेदार हैं।
संवेदनहीनता की पराकाष्ठा के मुहाने पर खड़े इस समाज में महिलाओं के प्रति
अपराधों पर नित नए प्रयोग किए जा रहे हैं,
कितनी बर्बरता और निर्ममता के साथ बलात्कार और हत्याएं की जा रही हैं लेकिन किसी
को उबकाई तक नहीं आती। आज भी हमारे देश में शासन का उपेक्षापूर्ण रवैया और रसूखदारों की अकूत
शक्ति न्याय प्रक्रिया को प्रभावित करती है और महिलाओं के अस्तित्व को भी।
शर्मिंदगी
महसूस होती है जब जनता के चुने हुए नुमांइदे महिलाओं के प्रति संवेदनहीन, अमर्यादित
और अश्लील टिप्पणियां करते हैं। जब अपराध रोकने के लिए महिलाओं को ही घर में रहने
और अपनी वेशभूषा का ख्याल रखने जैसीं दलीलें दी जाती हैं। क्योंकि आज भी हम महिलाओं को कमॉडिटी से ज्यादा कुछ समझने
के लिए विकसित ही नहीं हो पाए हैं। घर की
लक्ष्मी, घर का मान जैसे तमगों से हमेशा उसके हक़ और आज़ादी का दमन करने में सफल रहे हैं। लेकिन और कितना बर्दाश्त हो,
कब तक बर्दाश्त हो। ये समाज यूंही और
कितनी सदियों तक मजबूर रहेगा।
निर्भया के बाद लगा था
कि जैसे समाज में जागृति आ गई, लेकिन नहीं वो सब क्षणिक था, वहशत और दरिंदगी रोक पाने की कोई पहल, कोई
कवायद नज़र नहीं आयी। हम हर पल मरते हैं, कहीं कोई शिकन नहीं पड़ती। आधी आबादी को
क्या कभी उसका हक़ मिल पाएगा, क्या कोई दिन ऐसा आएगा जब हम बराबरी के हक़ की बात टेलिविज़न डिबेट्स
से निकलकर यथार्थ के धरातल पर कर पाएंगे।
पता नहीं, लेकिन शायद सदियां गुज़र जाएं। इसीलिए अब डर लगने लगा है इस समाज से, रसूखदार
ताकतों से, पुलिस से और देश से।
क्योंकि इस कड़वी हकीकत के बीच आज मैं ये सोचने पर
मजबूर हूं कि कल अगर मेरी आवाज़ खामोश करने के लिए मेरे साथ भी ऐसा ही कुछ कर दिया
जाए – अपहरण, एसिड अटैक, बलात्कार, परिवार का खात्मा या फिर किसी और तरीके का दबाब
या शोषण..तब भी ये समाज इतनी ही संवेदनहीनता दिखाएगा, तब भी कहीं किसी के कहने पर
इस खबर को दबा दिया जाएगा। कानून अपने हाथ बंधे होने की दुहाई तब भी देगा। कुछ एक
संवेदनशील और जागरुक लोगों के कैंडल मार्च या थोड़े बहुत आर्टिकल्स की शक्ल में
थोड़ी बहुत मदद क्या मुझे न्याय दिला पाएगी और क्या ये सारी कवायद उन तमाम महिलाओं
को हतोत्साहित नहीं करेगी जो आज भी दुनिया के अलग अलग कोनों में यौन शोषण का शिकार
होती हैं, लेकिन कभी आर्थिक मजबूरी और कभी पारिवारिक स्थिति के कारण खामोशी
अख्तियार करने को मजबूर हैं।
ये परेशानी सिर्फ मेरी नहीं है, ये हमारा सच है, ये आधी
आबादी का सच है, ये वो दर्द है जिसे सिर्फ वोही महसूस कर सकता है जिस पर गुज़रती
है, बाकी तो सिर्फ बाते हैं।
सवाल तो बेइंतेहा मेरे ज़हन में कौंध रहे हैं लेकिन
जवाब नहीं मिल पाएगा, मैं जानती हूं।
समाज में सर्वाइवल के लिए शायद पैसा और ताकत
ही सबकुछ है।