Wednesday, July 23, 2014

एक सोता हुआ शहर..


एक सोता हुआ शहर

और अब आपको बताते हैं आज की सबसे बड़ी खबर जिसने देश में सनसनी फैला दी है, शहर के बीचों बीच पायी गई एक लड़की की लाश, जिसके शरीर पर कपड़ों का निशान नहीं था, पुलिस  बलात्कार की आशंका से इंकार नहीं कर रही है....इस खबर ने पूरे शहर को शर्मसार कर दिया है।

क्या शहर कभी शर्मसार हुआ ??

ये है लगभग हर रोज़ सुनी जाने वाली हेडलाइन,वो हेडलाइन जो अब सुर्खी नहीं बन पाती..सनसनी नहीं बनाती, क्यों...क्योंकि हम आदी हो चुके हैं इन खबरों के....क्योंकि हम मुर्दों के शहर में बसते हैं.. क्योंकि अब हर रोज़ बलात्कार होते हैं, इज्जत तार तार होती है, खून के कतरे सड़कों के कोलतार में मिलकर अपनी हैसियत दफन कर देते हैं। क्योंकि फर्क पड़ना बंद हो गया है कि खून किसका था, सड़क किस शहर की थी। अब हम बस हर रोज़ ये सवाल करते रह जाते हैं कि लखनऊ की तासीर तो ऐसी ना थी, बैंगलोर का तो ये कल्चर नहीं, देश की राजधानी क्या निर्भया के बाद भी नहीं संभली....

हम किस मानसिकता के साथ बढ़ रहें हैं...और किस तरक्की की आस लिए इन शहरों में जी रहे हैं.. या हम आंख मूंद कर और ज़मीर को बेच कर जीने के पैबस्त हो चुके हैं।

सवाल ज़िंदगी का या ख्वाहिशों का...

आज भी गांव,कस्बों की सुविधा विहीन ज़िंदगी रोटी और चांद पाने की ख्वाहिशें लिए इन शहरों का रुख करती है और एक दिन अपने आप को ठगा सा महसूस करती है। क्योंकि यहां रोटी तो मिलती है लेकिन लहू की कीमत पर, ज़मीर की कीमत पर.. और ये कीमते यही खोखले, सोते हुए शहर वसूलते हैं। जो इस टैग लाइन के साथ जीते हैं कि बाज़ार के इस दौर में जीवन की गारंटी की इच्छा ना करें।

यौन शोषण..ये शब्द जो आज भी घरों में बच्चों के सामने बात करने में घरवाले परहेज़ करते हैं, कैसे समझाते होंगे अपनी बच्चियों को, कि जो घिनौनी हरकतें वो हर रोज़ बर्दाश्त करती हुई घर से बाहर पांव रखती हैं, यौन शोषण कहलाता है। औरत होना अपने आप में गाली बना दिया गया है, या तो पुरुषों की सरपरस्ती कबूल करों नहीं तो सड़कों, हैंडपंपो पर खून को रिसता बर्दाश्त करो।

अफसोस शहर खून तो रिसता देख पाता है लेकिन अपने ज़मीर का रिसना नज़रअंदाज़ कर जाता है।

छह साल की बच्ची तो ना छोटे कपड़ों में हो सकती है, ना रात को अकेले निकल सकती है और ना अपने ब्वाए फ्रेंड के साथ बाहर हो सकती है फिर मासूम कैसे उकसाती होगी बलात्कार करने वाले को....क्या ये सवाल उनसे लाज़िम नहीं जो हर बलात्कार के बाद बेहूदे तर्क पेश करते करते आज तक शर्मिंदा नहीं हो पाए।

दरअसल सवाल सिर्फ बलात्कार करने वालों से नहीं, सवाल इस समाज के हर उस हिस्सेदार से है जो संवेदनहीनता की पराकाष्ठा के साथ दम भर रहा है। ये समाज सिर्फ उस वक्त जागता है जब खुद के दामन पर छींटे पड़ जाते हैं, या अपने आंगन में खेल रही मासूमों की मासूमियत खत्म करने की कोई कोशिश करता नज़र आता है।

हमारी आंखे खुली होती हैं, लेकिन हम देख नहीं पाते।

क्योंकि देखने पर नज़रअंदाज़ करना मुश्किल होता है।

कहने को तो देश में लोकतंत्र है, सरकार है, नियम-कायदे-कानून सब हैं लेकिन कहां ?

आधी आबादी के सशक्तिकरण की बड़ी बड़ी बातें करने वालों के कंधे आज तक यौन शोषण और बलात्कार के आंकड़ों से झुके नहीं, बड़ा आश्चर्य होता है। कम से कम महिलाएं महिलाओं से तो उम्मीद कर ही सकती हैं कि कोई तो हो जो उनकी अस्मिता, उनके हक़ की बात करे। लेकिन नहीं, अब तो अफसोस भी करना शर्मिंदगी का एहसास जगाता है। महिला आयोग कहां ज़िम्मेदारी निभा रहा होता है, जब एक लड़की यौन शोषण का आरोप लगाती है और महिला आय़ोग उसके परिवार के एक सदस्य को सम्मन जारी कर देता है। ये वही देश है ना जिसमें सड़क पर खड़ी एक लड़की को दस करोड़ की मानहानि का नोटिस भिजवा कर उसका मुंह खोलने की सज़ा देने की कूवत रसूखदार रखते हैं।

हम आदी हो चुके हैं ऐसे समाज के,ऐसे हिस्सेदारों के और ऐसी रिवायत के।

जहां बलात्कार, यौन शोषण के लिए लड़की को ही आरोपी बनाने की कवायद चलती है। उसके चेहरे को, उसके पहनावे को, उसके चाल चलन को उसके बलात्कार के लिए दोषी ठहराया जाता है। बलात्कार पीड़िता के नाम पर निर्भया फंड बना दिया जाता है लेकिन जिसका संज्ञान लेने की ज़हमत तक कोई नहीं उठाता।

ये सिर्फ महिला ही जानती है कि बलात्कार सिर्फ शारीरिक ही नहीं होता, हर रोज़ घूरती नज़रें, समझौता करने का दबाब बनाते हालात और इनसे जूझने की मानसिक जद्दोज़हद हर रोज़ बलात्कार जैसा ही दंश देती है।

इंतज़ार किस इंतेहा का है, क्या जब सांस लेना दूभर हो जाए, सड़क पर निकलना दुश्वार हो जाए, हर गली और हर सड़क पर तेज़ाब की बोतल लिए एक शख्स नज़र आए और हर रात किसी औरत की चीखों और सिसकियों से इस समाज की नींद मुहाल हो जाए.....तब जागेगी ये सरकार और तब करवट लेगा ये समाज.

इससे पहले कि हदें पार कर चुका शोषण और अत्याचार अपने चरम पर पहुंचे, अपनी आंख के पानी को मरने मर दो, वर्ना ज़िल्लत इस सोते हुए समाज को मुर्दा बना देगी और कसूरवार ठहराने के लिए उंगली किसी और की तरफ नहीं बल्कि खुद तुम्हारे ही ज़मीर पर उठेगी।

1 comment:

प्रतिभा सक्सेना said...

जिन्हें कुसंस्कारों और विकृत परोसों पर पाला गया हो उन पर बातों का कोई असर पड़नेवाला नहीं उन्हें उन्हीं की भाषा में समझाना आवश्यक है .