Wednesday, September 26, 2012

मां..

आवाज़ ...हर आवाज़ के साथ शायद एक रिश्ता होता है....मां के गर्भ में पल रहे छोटे से जीव का पूरा जीवन उस आवाज़ के ज़रिए ही अपनी गति पकड़ रहा होता है...हर आवाज़ की अपनी एक पहचान है....उसमें दर्द है...उल्लास है...प्रेम है...अभिव्यक्ति है....छिपाव है...हिचकिचाहट है पर ....कहीं बहुत महीन पर्तों के भीतर दबी छिपी एक सच्चाई भी है जो मां और बच्चे के रिश्ते की डोर पकड़ती है....जो मां को मां बनाती है और बच्चे के हर बोल में छिपे सार को पहचानती है...


मां की आवाज़ बेशक तेज़ है,तीखी है...पर कई गहरे समंदरों का दर्द समेटे है...
उसमें बनावट नहीं है....
नन्हे बच्चे जैसी निश्चलता है और दुनियादारी को ना समझ पाने की अचकचाहट भी है....
उसकी आवाज़ में पूरी कायनात है.....
हर रंग है....हर अहसास है...
जब वो बोलती है तो लगता है...
जैसे कहीं दूर....
किसी बावड़ी में गहरे उतरकर, सदियों से शांत पड़े पानी को किसी ने हौले से छू दिया हो....
जिसकी हिलोरो में मैं मीलो दूर होकर भी ठहर जाती हूं.....
उस गमक से निकलते सुरों में रागिनियां नहीं है.....
जब वो गाती है तो राग मल्हार नही फूटता....
पर शायद कहीं दूर ...कहीं बहुत दूर...
हज़ारो मील दूर....
किसी गहरे दबे-छिपे दर्द की अतल गहराईयां यूं सामने आ जाती है,
जिनके आगे सुरों की सारी बंदिशे बेमानी लगती हैं....
उसके सुर मद्धम चांदनी रात में बेचैनी पैदा करते है....
उसके सुरो की चाप उसके सूने जीवन को परिभाषित करती हैं...
उसकी गुनगुनाहट जीवन के रंगो के खो जाने का एहसास कराती है.....
उसकी आवाज़ से निकलता दर्द...जीवन की नीरवता बताता है.....
उसकी आवाज़ से किसी घायल हिरणी की वेदना पैदा होती है....
उसके गीतों के बोल उसके जीवन की गिरह खोलते हैं....
वो सुंदर नही गाती पर दर्द भऱा गाती है....



मैं कभी गाना नहीं चाहती......



मां के पास अनगिनत किस्से हैं...
पर सुनने वाला कोई नहीं...
उसका घर खाली है....
उसका जीवन भी...
वो बारिश की फुहारों के बीच अकुलाते पौधे की तरह है....
वो अपनी आवाज़ अपने आप सुनती है....
वो कहानियां कहती है ...और आप ही झुठलाती है......
वो अपना दुख कहती है....और आप ही हंस जाती है....
वो दिन भर का किस्सा बताती है और थक जाती है.....
वो अकेलेपन में भी जीवन तलाशती है..


वो बिना चश्मे के भी देखने का दावा करती है....
वो हर रोज़ मेरे खाना ना खाने पर गुस्सा करती है.....
पर प्यार और मनुहार भी करती है....




मेरे कमरे में मेरी मां रहती है बिना साथ रहे
मैं सिर्फ चुपचाप सुनती हूं.....बिन कहे
मेरी वेदना है मेरी मां....
उसकी जिंदगी के गिरह ना खोल पाने की वेदना
उसके हर रोज़ जिंदगी से जूझते देखने की वेदना...
उसकी जिंदगी के अकेलेपन को हर रोज़ महसूस करने की वेदना
उसे खूबसूरत चेहरे को झुर्रियों मे तब्दील होते देखने की वेदना
उसकी खोयी जिंदगी दोबारा उसे ना दे पाने की वेदना

मैं अकेले कमरे मे उसकी आवाज़ को खोलना चाहती हूँ ....
एक एक गाँठ , एक एक बोल और एक एक रेशा

उसको जीवन देना चाहती हूं....
उसके पूरे जीवन के साथ मेरी सिर्फ ग्लानि है...


मैं उसे जीवन देना चाहती हूं...।।

3 comments:

संजय भास्‍कर said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति संवेदनशील हृदयस्पर्शी मन के भावों को बहुत गहराई से लिखा है

डॉ .अनुराग said...

मैं अकेले कमरे मे उसकी आवाज़ को खोलना चाहती हूँ ....
एक एक गाँठ , एक एक बोल और एक एक रेशा

उसको जीवन देना चाहती हूं....
उसके पूरे जीवन के साथ मेरी सिर्फ ग्लानि है...

मै इस कन्फेशन में भागीदारी करना चाहता हूँ सर झुकाए इस तरह से कोई मेरी गीली आँखों को न देख पाए ......मै गुजरे कई वक्तो से गुजर उन्हें दुरस्त करना चाहता हूँ जिनमे मां शामिल थी .

Vandana Ramasingh said...

मर्मस्पर्शी ....!!!