कल रात ब्रजेश्वर मदान सर ने एक मैसेज भेजा था....सिनेमा पर....
(वही मदान सर जिन्हें सिनेमा पर लिखने के लिए पहले नेशनल एवॉर्ड से नवाज़ा गया )
उसमें लिखा था....
शेक्सपियर ने दुनिया को रंगमंच की तरह देखा....
जहां हर आदमी अपना पार्ट अदा करके चला जाता है...
सिनेमा तब नहीं था...
जहां आदमी नहीं उसकी परछाईं होती है.....
बाल्कनी...,रियर-स्टॉल....,ड्रैस सर्कल....
या फ्रन्ट ब
ैंच पर बैठा वो...
परछाईयों में ढूंढता हैं...अपनी परछाईं....
कहीं मिल जाए तो उसके साथ हंसता है...रोता है...
सिनेमा की इस दुनिया में अपना जिस्म भी पराया होता है....
फिल्म खत्म होने के बाद जब....
ढूंढता है अपनेआपको...
तो अपनी परछाईं भी नहीं मिलती....
फिल्म का पर्दा खाली होता है....
लगता है....
मेहनत बेकार गई...
फिर कोशिश करुंगा.....
मैनें इसका जवाब भेजा था, और इस कन्वरसेशन के बाद मैं यही सोचती रही कि सिनेमा हमारी ज़िंदगी पर कितना असर डालता है...हम कई बार सिनेमाई चरित्रों को जीते हैं....औऱ कई बार सिनेमा हमारे जैसे लोगों के चरित्र उठाकर....कोई एक मास्टर पीस बना देता है....और रील और पर्दे की दुनिया में वो कैरेक्टर हमेशा के लिए अमर हो जाते हैं.....मैनें भी अपनी पढ़ाई के दौरान कहीं पढ़ा था कि साहित्य समाज का दर्पण होता है.....लेकिन मुझे सिनेमा भी समाज का ही दर्पण लगता था.....हमेशा से ही....बचपन से अब तक सिनेमा ने मुझे बहुत आकर्षित किया अपनी तरफ.....मैं हमेशा से ही इसका एक हिस्सा बनना चाहती हूं.....हालांकि मुझे अब तक ये नहीं मालूम कि मैं इसमें सबसे अच्छा क्या कर सकती हूं....मैं एक एक्टर बन सकती हूं या फिर डाएरेक्टर...या स्क्रिप्ट राइटर.....मालूम नहीं...कुछ भी मालूम नहीं....मालूम है तो बस एक ही शब्द...सिनेमा....शायद सिनेमा मुझ पर बहुत ज्यादा हावी रहता है.....हर वक्त.....
लेकिन सिनेमा के साथ ही जुड़ी एक और हकीकत भी है कि सिनेमा मे काम करने को सिर्फ एक ही नज़रिए से देखा जाता है....वो ये कि फलां इंसान इसलिए बंबई गया क्योंकि उसे हीरो या हीरोइन बनना है......इससे ज्यादा हमारे जैसे कस्बों के लोग और कुछ सोच ही नही पाते हैं.....क्योंकि वो चीज़ों को एक ही तरीके से देखते हैं और हमेशा सिर्फ अपने ही लकीर के फकीर वाले तरीके से सोचते हैं...वो ये नहीं देखते कि अगर रजनीकांत बस की कंडक्टर की नौकरी छोड़कर मुंबई नहीं गया होता तो आज साउथ फिल्म इंडस्ट्री को इतना बड़ा स्टार नहीं मिला होता...इसके अलावा भी बलराज साहनी, देवआनंद, धर्मेंद्र...और एन टी रामाराव अगर अपनी मिट्टी छोड़कर बाहर नहीं गए होते...तो आज हम सब इतने महान अभिनेताओं से महरूम ही रह जाते...ये वो लोग है..जो मेरी तरह ही किसी छोटी जगह में पैदा हुए और वहीं पले बढ़े....मुझे नहीं मालूम कि मैं बचपन से ही इतनी समझदार कैसे थी कि अपने सपनों के बारे में किसी को भी नहीं बताया करती थी....औऱ सिनेमा तो बिल्कुल भी नहीं...क्यों कि सिर्फ यही सुनने को मिलता......कि ये बिगड़ गई है...या फिर हाथ से निकल गई है....क्योंकि मैंने जितनी भी हीरोइन्स के बारे में बातें सुनी....उसे हमारे जैसे छोटे शहर के लोग अच्छा नहीं मानते थे...उनकी निगाह मे फिल्मी लड़कियां अच्छी नहीं होतीं थी....नर्गिस...मधुबाला जैसी अभिनेत्रियों को लोग बहुत पसंद करते थे औऱ आज भी करते हैं....उस ज़माने में ये अभिनेत्रियां ड्रीमगर्ल तो बन सकती थीं....उन धड़कते दिलों पर राज कर सकतीं थी.....फैंटेसी का एक हिस्सा भी हो सकतीं थी लेकिन प्रैक्टिकल दुनिया में इनकी कोई जगह....या फिर अपने ही परिवार की किसी लड़की का फिल्मों में काम करना तो सोच भी नहीं सकते...।
सिनेमा ने ही कहीं ना कहीं....शायद मुझे बड़ा बनने का सपना दिखाया....मैने उसमें आदमी और औरतो के संघर्षों को देखा....उन्हें जाना और महसूस किया....सिनेमा मेरे लिए सिर्फ मनोरंजन कभी नहीं रहा....सिनेमा शायद मेरे लिए हमेशा से एक किताब की तरह भी रहा......जिसके ज़रिए मैं बाहर की दुनिया को.....अपनी छोटी सी दुनिया में बैठे-बैठे जान जाती थी...पढ़ती थी... और महसूस भी किया करती थी........सिनेमा के अजब-गजब चरित्र मुझे आकर्षित करते थे......एक तरफ अगर मुझे बंदिनी जैसी फिल्मों के गाने अच्छे लगते तो उस ज़माने की वैम्प औऱ डांसर हेलन भी मुझे बहुत आकर्षित करती थी.....लेकिन मैं ये भी जानती थी कि लोग इस तरह की महिलाओं को पसंद नहीं करते इसलिए कभी किसी को बताती भी नहीं थी.....
.इसके अलावा मुझे हर वो कैरेक्टर अच्छा लगता था......जो बहुत नीचे से ऊपर उठता था.......जो बहुत ग़रीब होता था.....जो समाज की ज्यादतियों के खिलाफ लड़ता था......ये भी हो सकता है कि शायद उस दौर में फिल्में ही ऐसी बनती थी...सिर्फ औऱ सिर्फ एंग्री यंग मैन अमिताभ बच्चन ही छाया रहता था शायद इसीलिए वो मेरे से एक पीढ़ी ऊपर के लोगों का हीरो होने के बावजूद मेरा भी हीरो बना...अमिताभ की अग्निपथ,जंज़ीर,शक्ति...और शोले जैसी फिल्मों से मुझे अग्रेशन मिला तो...उसी दौर के बाकी सिनेमा ने भी मुझे कुछ न कुछ सिखाया.....वो फिल्में इसलिए भी अच्छी लगती थीं कि उनके छोटे से छोटे कैरेक्टर से भी आप खुद कहीं न कहीं रिलेट हो पाते थे....
मुझे बड़ा फक्र होता है ये सुनकर कि उस टाइम में शहर में आने वाला सबसे पहला टेलीविज़न मेरे पापा लाए थे....और आज भी मेरे शहर के लोग मुझसे मिलने पर कहते हैं कि हम तुम्हारे घर आया करते थे....टीवी और फिल्में देखने......मेरे साथ सिनेमा काफी जुड़ा हुआ सा है....मुझे कभी भी फिल्में देखने का मन इसलिए नहीं किया कि टाइम पास करना है या बस कुछ करने के लिए नहीं बल्कि इसलिए...क्योकि उनसे कोई ना कोई संदेश भी मिलता था....मैं फिल्मों की शौकीन इसलिए भी बनीं क्योंकि मेरी ताईजी को इसका शौक था और उन्हीं की फरमाइश पर घर में फिल्मों के लिए वीसीआर आया करता था.....और हम लोग बाकायदा रात में आंगन में दरी-कालीन....तखत...कुर्सी लगाकर...बिल्कुल सिनेमा हॉल की तरह ही फिल्म देखा करते थे......हां बाकायदा फिल्मों पर डिस्कशन भी हुआ करता था.....इसलिए ऐसा ही कुछ अच्छा लगता था.....लेकिन जो कुछ भी था...मैं उन्ही जीती-जागती....और बड़े पर्द की दुनिया के साथ-साथ बड़ी हो रही थी.....औऱ हां खास बात ये रही कि.....बड़ा पर्दा अपनी ज़िदगी में मैने काफी बड़े होने के बाद ही देखा था....यानि जब मैं क्लास 12 में थी तब पहली बार सिनेमा हॉल में जाकर हम आपके है कौन... फिल्म देखी थी....और उसके बाद से आज तक वो बड़े पर्दे का मोह नहीं छूट पाया.....
सिनेमा की दुनिया बड़ी अजीब दुनिया है....करन जौहर की फिल्में अगर आपको लार्जर दैन लाइफ दिखाती हैं तो अनुराग कश्यप अपने लीक से हटकर चलने के लिए ज्यादा जाने जाते हैं...देवडी बिल्कुल अलग और आज का सिनेमा है लेकिन हमसे हटकर नहीं....फर्क सिर्फ एक्सेप्टेंस का है....जितना जल्दी हम लोग स्वीकार कर लें....हमारे लिए ही बेहतर है....सिर्फ एक ही कमी लगती है....दुनिया को सिर्फ भारतीयों की निगाह से ही देखा है...अभी भी बहुत कुछ ऐसा है जो सिनेमा ने हमें दिया है और हम तक पहुंचा नहीं....सिनेमा आज भी हमें बहुत कुछ दे सकता है......
लेकिन बहुत से लोगों के लिए सिनेमा महज़ मनोरंजन का साधन मात्र है.....लोग कहते हैं कि फिल्म ही तो देखनी है....घर पर डीवीडी में देख लो लेकिन शायद वो ये नही जानते कि बड़ा पर्दा कितनी अहमियत रखता है मेरे लिए....वो महज़ एक टाईम पास नहीं है...वो भीड़ में बैठकर सिनेमा देखना नहीं है....वो पॉपकॉर्न खाते हुए वैसा कुछ नही है जिसे ज्यादातर लोग करते हैं.....वो एक अजब और अलग दुनिया है......जहां सिर्फ और सिर्फ अंधेरे के बीच बड़ा पर्दा और मैं होते हैं......अपने ही ताने बाने को बुनते सुलझाते लम्हों को साझा करते.....उस पर्दे के पार समझने की कवायद करते और एक दिन वैसा ही बड़ा पर्दा बनाने का जुनून पालते.....वो कुछ और ही एहसास है ....जिसे शायद वक्त के आने पर मैं कभी बयां कर पाऊं......सिनेमा के ही ज़रिए