ऐसा लगता है जैसे बहुत से शब्द...कहीं खो जाते हैं.....कभी पकड़ में नहीं आते या फिर उम्र बीतते-बीतते (शायद पता नहीं चल पाता)कहीं साथ पलते बढ़ते हैं...और साथ साथ बढ़ते बढ़ते बाद में अपना अस्तित्व खोज पाते हैं....मेरे शब्द अक्सर खो जाते हैं...शायद उसे समझ नहीं आते.....मेरे साथ....मेरी ज़िंदगी के साथ हर रोज़ उलझते हैं .....अपने अस्तित्व को मेरे साथ ही मिला देते हैं....कितनी ही दफा....कितना कुछ कहा....जो वो समझ नहीं पाता.....कई शब्द जो मैं बड़ी शिद्दत के साथ वहां तक पहुंचाती थी....अक्सर बिन कहे....बिन सुने वापस आते नज़र आते हैं....मैं द्वन्द में फंस जाती हूं.....मेरे शब्दों की कशिश थम गयी या शब्द कम पड़ गए.... उन शब्दों को खोना नहीं चाहती ....वहीं पहुंचाना चाहती हूं.....शब्दों के थमने और खोने का सिलसिला अच्छा नहीं होता....ये मैने सुना है....पर शायद उसे मालूम नहीं....उसके शब्द उसकी खामोशी के पीछे छुप गए हैं.....और मैं जान बूझकर उसके मौन की भाषा समझना नहीं चाहती .....
मुझे शब्द चाहिए उसके.....कुछ उनींदे....खोए....खामोश.....पर उसके इश्क़ से लबरेज़ शब्द.....हर बार की इस कोशिश मे मुझे मालूम नहीं कि ये सारे शब्द कहां जाते हैं....पर उम्मीदों का दामन थमता ही नहीं.....एक निरंतर...कभी ना खत्म होने वाली प्रक्रिया की तरह बस अनवरत चलता रहता है......मैं रचना चाहती हूं....अपने शब्दों का संसार...उसके साथ.......वहीं...जहां अक्सर मैं कुछ खोजने जाती हूं....अपने अंदर के छूटे हुए शब्दों की तरह....अपनी हद तय नही करना चाहती.....आसमान को और ज्यादा ऊंचा कर देना चाहती हूं.....वो कहता....मैं....बहुत बड़ा है मेरे अंदर का....मै अक्सर उस मैं को भी खोजने जाती हूं....मैं अपने मैं को कम कर देखना चाहती हूं.....और अपने इश्क़ को और बड़ा होते देखना चाहती हूं.....पर बहुत कुछ चाहती हूं.....