Saturday, April 24, 2010

कोई शिकायत नहीं.....

तुमसे कोई शिकायत भी तो नहीं...क्यूंकि ....तुम जानते हो ...जन्म जन्मान्तर से सहेजे महुए की मादकता ....किसी बरसाती नदी की बासी पड़ी मछली का स्वाद ...और मेरी देह से उठने वाली हर गंध .....जब तुम्हारी गंध से मिल जाती है....तब शायद बौर आ जाता है..हाँ कुछ अजीब होता है ना ....बिलकुल वैसा जब आँगन में अमराई पर बौर आता है....तुम्हारे लिए गमकने का मन जोर मारता है...बिना किन्ही सवालों के झंझावत के.....मेरी हाथ की पकाई मछली का झोल ..."आमी माछेर झोल" का स्वाद ..हाँ , जब तुम्हारी आँखों से उसका स्वाद सामने आता है....तब मेरा मन लहकता है....वो सारे सवाल कंही गुम हो जाते हैं...गर्मी में चू रहा पसीना...तुम्हारे इंतज़ार में बिताती जेठ की दुपहरी .....महुए को बीनना .....साँझ बीतते ना बीतते ...तयारी करना..... बेला...गुलाब ...के इंतज़ार में ना जाने क्यूँ व्याकुल होना .....ये सब एक साथ ही होने लगता है....दोपहरी से पहले पहले ....
वो सारा स्वाद एक साथ ना जाने कितने दिनों के बाद मिला है.....साँझ के गहराने से पहले तेंदू पत्ता लाना...तुम्हारी महुआ ...तुम्हारे पास पहुँचाना और फिर....अपने चूल्हे की आंच में तुम्हे खाते देखना....कभी कभी राख में भी सुर्ख फूल नज़र आ जाते हैं......क्या तुम देखते हो...इस देह में...पोर पोर में बस जाती है...महुए...मछली....बेला...गुलाब और मेरे पसीने की गंध....जब बीच में एहसास के लिए कोई हवा भी गुज़र नहीं पाती.....इन सबके बीच मैं बन जाती हूँ.... बस एक ही गंध....तुम्हारी देह की गंध....
एक अजब प्यास जगती...बिलकुल तुम्हारी महुआ जितनी ...ना मालूम किस ठौर कुआँ मिले... और फिर किसी बरसाती अल्हड नदी की तरह मेरा मन भी गमक जाये.....तुम्हारे संग ना जाने कितने जन्मो का बंधन .....ना जाने कितनी मुस्कुराहटें....कितनी गुनगुनाहट .....कंही गुम ना हो जाएँ...ऐसा जैसे हज़ारों सालों की प्रतीक्षा के बाद तुम मिले हो......कंही दूर ना जाने किसकी खोज में गुमे थे....मैं तबसे ...ना जाने कबसे प्रतीक्षारत....यूँही साँझ बुहारती थी....हर रोज़ तोरणद्वार सजाती....ना जाने कितने ही दफा खुद ही दर्पण में निहार कर ....शर्मा जाती ......

क्या तुम बूझ पाओगे...जंगल-जंगल घूमते...महुआ बीनते..किसी ठौर बैठते...घूमते मेरे मन में लगातार क्यागूंजता..तुम....कहीं जाओ....पर घूम-फिरकर...मेरेही पास आने को जी चाहता है....तुम्हारा...क्यूंकि मैं ठीढ हूँ...तुम्हारा रास्ता नहीं छोड़ती...चाहे सपने में ही सही....मैं तुमसे लिपटना चाहती हूँ..लिपटती हूँ...तुम्हे चूमना चाहती हूँ......चूमती हूँ....और तुम्हारे कोमल और नरम हाथों की गरमाहट महसूस करती हूँ...मुझे मालूम है.....कल कल करती मैं बात-बेबात हँसती रहती हूँ ......और जब तुम मुझसे नाराज़ होने का अभिनय करते हो....मैं और हँसती चली जाती हूँ ...कभी कभी तुम्हे सताना..परेशान करना....मेरी साँसों में उष्णता भरता जाता है....तुम मुझे नहीं देख पाते लेकिन.....तुम्हारी आँखों की कोर में जाड़े की सुबह का उजास और गर्मी की शाम की सुरमई चमक एक साथ डोलती है....

मैं तुम्हे बार बार छूना चाहती हूँ......तुम्हारा साथ चाहती हूँ......कभी कभी तो बलखाती, इठलाती-इतराती मैं प्रेम में पगी लड़की की तरह तुम्हारे आगे पीछे बौराती हूँ....पर तुम्हारा अनायास चला जाना.....

महुआ तो चिरयौवना है...उसकी वजह से जंगल की फिजा में यौवन है......मुझमे तुम हो.....और तुममे मैं हूँ.....मैं चित्रकार नहीं होती ....कवी भी नहीं पर फिर भी तुम्हारा ना होना राग जलाता है मेरे भीतर....ये पूरा जंगल....तुम्हारे पीछे देखो तो कैसा सधा नज़र आता है.....शायद मेरे भीतर का ही जंगल बाहर आ जाता है....तुम बूझ नहीं पाओगे....साल दर साल.....मुझमे तुम्हारे वापस आने वाले जीवन के प्रति राग पैदा करती है.....मेरे भीतर बनती जंगली पगडंडियाँ.......

कभी समंदर नहीं देखा ...पर तुम्हारे साथ एक नदी देखी है.....मुहाना देखा है......तुम्हे देखा है......पहाड़ देखे ....जंगल भी देखा है....बस एक दफा तुम भी देख लो वो सब.....जो मैंने देखा है.....!!

22 comments:

ranjana said...

क्या लिखती हैं आप?...इतना डूबकर?? मुझे तो पढ़कर नशा आ रहा है ये शब्द नहीं है जिंदा सांसे हैं.

पारुल "पुखराज" said...

महुआ तो चिरयौवना है...appealing

M VERMA said...

आपकी लेखन शैली बहुत गहराई तक उतरती है
बहुत सुन्दर

संजय भास्‍कर said...

अच्छी लगी आपकी कवितायें - सुंदर, सटीक और सधी हुई।

रोली पाठक said...

उम्दा लेखन...!
बार-बार पढने का मन करता है....

दिलीप said...

bahut hi jabardast dil jhoom utha....ek ajeeb si kashish thi....waah

Udan Tashtari said...

अहा!! बहुत प्रवाहमयी...आनन्द आ गया.

रोहित said...

dil ko gahre sparsh karti hui sarthak rachna...
aapke jajbaton ki chasani me khud ko dubona accha laga..behad umda likha hai aapne!
regards-
#ROHIT

रोहित said...

dil ko gahre sparsh karti hui sarthak rachna...
aapke jajbaton ki chasani me khud ko dubona accha laga..behad umda likha hai aapne!
regards-
#ROHIT

कुश said...

Awesome...! Simply Awesome..!!!

अरुणेश मिश्र said...

ललित लेखन ।

हेमन्त वशिष्ठ said...

खूबसूरत ... pure bliss in written ...

अबयज़ ख़ान said...

गर्मी में चू रहा पसीना...तुम्हारे इंतज़ार में बिताती जेठ की दुपहरी .....महुए को बीनना .....साँझ बीतते ना बीतते ...तयारी करना..... बेला...गुलाब ...के इंतज़ार में ना जाने क्यूँ व्याकुल होना..

इंतेज़ार और प्यार उम्रभर के साथी हैं.. जब किसी से डूबकर इश्क होता है.. तो प्यार ख़ुद ब ख़ुद क़ाग़ज़ पर उतरने लगता है..

डॉ .अनुराग said...

कई रास्तो ओर कई पडावो से एक साथ गुजरता हूँ....कुछ जाने पहचाने से है .कुछ अनजाने .....इतना तय है के पहले कभी आना नहीं हुआ .पर मोड़ पर खड़े कुछ लफ्ज़ मुझे जैसे अपने से लगते है ....किसी रूह के आइने से...मै इस आइने को तोड़ कर इस रूह के पास कुछ देर बैठ जाना चाहता हूँ.....इसकी सारी शिकायते ....सारे गिले सुनना चाहता हूँ.....पर डरता हूँ के ये फिर लफ्जों से खाली हो जायेगी.....मै इस रूह के मुक्कदस चेहरे पर एक टीका लगाना चाहता हूँ.....ताकि फिर कोई ख़ुशी इस रास्ते को न भूले.....


one of your best........

शरद कोकास said...

बहुत सुन्दर शिल्प है ...।

Safarchand said...

दिल की कलम से लिखा जा रहा ये ब्लॉग संभवतः ब्लोगिंग विधा को सृजन से जोड़ता है. प्रखर भाव और शिद्दत के एहसासात, बेबाक शब्दों और प्रौढ़ प्रतीकों को नेट पर हिन्दी में परोसने के लिए क्रोताग्य हूँ.....जीती रहो और लिखती रहो तनु जी ...आप को फालो कर रहा हूँ !!

डिम्पल मल्होत्रा said...

सारी खुशबुए ,सारे स्वाद,मुस्कुराहटें,जंगली पगडंडिया,शर्मना,लिपटना,इतराना सब कुछ जैसे आस पास हो रहा है,किसी अलग दुनिया की,समय से परे की बातें लगी.कितनी देर रास्ता खोजती रही बाहर निकलने का.अभी तक गुम हूँ इन पगडंडियो में,कभी समंदर नहीं देखा ...पर तुम्हारे साथ एक नदी देखी है.....मुहाना देखा है......तुम्हे देखा है......पहाड़ देखे ....जंगल भी देखा है....बस एक दफा तुम भी देख लो वो सब.....जो मैंने देखा है....superb..

अमिताभ श्रीवास्तव said...

behatreen shabd sanyojan.
hindi me likhne ki is kalaa ka apnaa mukaam he aour yah hamesha se hi paathak ko apne paash me baandhe rakhne vaali sheli he.., bahut khoom, lekhan mujhe pasand isliye bhi aayaa kyonki aajkal bahut kam is tarah ka lekhan dekhne me aataa he../

डॉ. राजेश नीरव said...

...जन्म जन्मान्तर से सहेजे महुए की मादकता ....किसी बरसाती नदी की बासी पड़ी मछली का स्वाद ...और मेरी देह से उठने वाली हर गंध .....जब तुम्हारी गंध से मिल जाती है....तब शायद बौर आ जाता है..हाँ कुछ अजीब होता है ना ....बिलकुल वैसा जब आँगन में अमराई पर बौर आता है....तुम्हारे लिए गमकने का मन जोर मारता है...बिना किन्ही सवालों के झंझावत के.....मेरी हाथ की पकाई मछली का झोल ..."आमी माछेर झोल" का स्वाद ..हाँ , जब तुम्हारी आँखों से उसका स्वाद सामने आता है....तब मेरा मन लहकता है....वो सारे सवाल कंही गुम हो जाते हैं...गर्मी में चू रहा पसीना...तुम्हारे इंतज़ार में बिताती जेठ की दुपहरी .....महुए को
बीनना...........शानदार ..........

Nimityo said...

great, kabhi kabhi achanak koi pathar apse hat jata hai aur niche se kuch chamkte moti nikal padte hai.. kuch aisa hi hua, maine next Blong per click kiya aur apka blog nikal aaya. kuch khaas baat hai...

Amit K Tyagi at http://yezindagihain.blogspot.com/

Ek ziddi dhun said...

ओह! तनु का महुआ

K.P.Chauhan said...

aap kyaa likhti hain ,kaisaa likhti hain ,kyoun likhti hain ,kyaa samandar me doob kar likhti hain yaa nadee me tairte hue,athwaa aasmaan ko chhoote hue ,meri samajh me nahin aati ye shabdon ki goodtaa,bahut hi achchhaa or manmohan likhaa hai