Thursday, April 30, 2009

ज़िंदगी का पहला लम्हा......जब हर लम्हा तुम्हें खुश देखा.......

मन.....बहुत परेशान करता ये मन.....क्या सबके साथ ऐसा ही करता....उनका भी मन....या ये सब सिर्फ मेरे लिए ही......एक बार फिर वहीं वापस जाने जैसा मन...मन को कैसे कोई समझाए..जिसके पीछे वो भागता.......वो उससे सिरा तोड़कर आगे बढ़ गया......ये मैं या फिर सिर्फ मेरा मन....पता नहीं.....कुछ पता नहीं.....कभी कभी तो ये भी पता नहीं......कि दूर जाते वो तुम या तुम्हारे पीछे भागती तु्म्हारी परछाईं.......या फिर वो कौन.....

कैसे समझाऊं मैं मन को......जिसके अंदर गुबार.....तुम्हारा और तु्म्हारी यादों का......उसी ढलती दोपहरी और बर्फ के सायों के बीच बसती सर्दियों का......वो लंबे,सूखे और बिन पत्तियों वाले पेड़ों वाले किसी पार्क के बीच.........बर्फीली सी एक तस्वीर खिंचावाती...तुम्हारी ओर एकटक निहारती..सड़क किनारे...फिरन पहने....कुछ बेचते आदमी से तुम्हें कुछ लेकर खाते देखते........तुम्हारे साथ वहीं दोबारा जाने का मन होता.....एक बार फिर उसी सड़क पर.....पर तुम क्या अगर उस जगह पर वापस जाते.. तो सब कुछ वैसा ही होता जैसा उस बार था.....सर्दियों वाली दोपहर में भला सा लगता सूरज..फरवरी में भी दौड़ते-भागते पसीना दिलाता वो सूरज.....और ज़मीन से टकराती उसकी रश्मियों का जादुई असर... ब्रह्मांड के उस कोने पर चमकती बर्फ की कतरनों के बीच.......दिनभर के हर पहर पर तुम्हारे साथ के कदमों के निशां मेरे जहन पर छोड़ता वो शहर...पहाड़ी....बर्फीला.....

जिदगी का पहला लम्हा......जब हर लम्हा तुम्हें खुश देखा..... दुनिया के उस छोर को देखा.....बर्फ को देखा....पहाड़ को देखा......सूखे चिनार को देखा.......झेलम को देखा.....शहर की तल्ख ज़िंदगी से दूर...उस आशनायी में बसती.....मासूम चिड़िया के पंखो जैसी शान्ति को देखा......उस खामोशी को हर खामोश लम्हों में जिया........कैसे तबाह होने दूं .......उस कोने को.......जिस्म के हर हिस्से पर लकवा मार जाता हो जैसे........पर मेरा मन....सबकी पहुंच से दूर.......तुम्हारे गुस्से से दूर...इन सबसे दूर......एकदम छोटे बच्चे की तरह....जिसे कुछ नहीं पता......मेरा मन भी वैसा ही......उसे नहीं पता........इस खाई की थाह लेने की कोशिश करता मेरा मन.....हर छलांग में तुम्हें ढूंढने की जैसे कोशिश....हर बार हार....पर हर बार वैसा ही जुनून.....ना कोई बेचैनी.......ना तल्खी.....ना मायूसी.....गिरना हर बार गिरकर उठने पर भी एक सुकून......कि इस बार तुम ज़रुर मिलोगे.....

ऊंची पहाड़ी पर मीठी चाय बनाने वाला वो जवान....गर्म पानी पिलाता एक जवान....एकटक.....सीना ताने खड़ा वो जवान.....और चार कुत्तों के साथ दूर घाटी के उस पार भी दिखते....स्वर्ग जैसे पहाड़ शफ्फाक नीला आसमान........जहां मैं कुछ अपना छोड़ आयी थी.....थोड़ा सा अपना और तुम्हारे हिस्से का आसमान...वो बर्फ....वो डोज़र....ऊपर से दिखती खाई........और अब खाई में उगा हुए ठूंठ की तरह मेरे दुखो का एक और पहाड़...वो चमकीली ऱौशनी..... कुछ उस तरह की जो फुजीकलर फिल्मों में दिखती........ जैसे सब कुछ........मेरी यादों में कैद हर एक लम्हे पर कोई चमकीला सुनहरा सा हाईलाईटर चलता जैसे........नीली-सफेद खूबसूरत पहाड़ियों के बीच तैरती मेरी हसरतों की पतंगे.......सबकुछ एक सपना बनकर रह गया........एक सुनहरा चमकीला सपना....भला सा सपना....

दुनिया की हर उस चीज़ की पहुंच से दूर,मोबाइल....ट्रैफिक.....हॉर्न..... इन सबसे दूर....जहां मैं लौटना ही नहीं चाहती.....लौटना न तो आसान और लौटकर मिलता भी तो क्या मिलता......सिर्फ सपना......सिर्फ पहाड़....वो चाय वाला जवान.....धूप में अलसाते कुत्ते....सूरज के मिजाज बदलते नज़ारे... उस वक़्त के बादल पता नहीं कहां पानी बन बरस चुके होते......लौटना शायद मुमकिन ही नहीं........

लौटकर किसी तस्वीर में कैद.....किसी कमरे में कोने में रखे फ्रेम में हर पल में उन लम्हों को ज़िंदा होते पल पल देखने में कष्ट होता है......ये कष्ट किसी कैनवास या जादुई तस्वीर का हिस्सा नहीं बन पाता......ये उन रंगों में कैद होकर...वो इंद्रधनुष नहीं बना पाता.....जो तुम्हारी आंख की चमकीली चमक की कौंध से मेरे चारो तरफ अपने आप आकर खड़ा हो जाता है...... क्यों ये सब काबू से बाहर.....मेरी ज़द से बाहर मेरी कोशिश हर बार बेकार......मेरी तरह.....मेरे इस अनकहे पागल प्यार की तरह......

अगली बार जब मिलोगे तो वहीं मिलना......ब्रह्मांड के किसी और कोने में....जहां से मुझे.....हम दोनों का एक ही सिरा मिलेगा.....जिसे मैं वहीं छोड़ आयी......क्या ये सिर्फ एक संयोग.......एक सपना......एक इत्तेफाक,एक ऐसा कुछ....जैसा तुम चाहते......किसी सिरे को छोड़कर आगे भागते......मेरा सिरा......मुझे ही उलझाता और अपलक तुम्हे निहारता......आगे जाते तुम्हें एक झंझावात की तरह गोल-गोल गुजरते देखता.......पर तुम्हें नहीं पता........उस झंझावात में, मैं कहां उड़ती........कहां तक जाती और...और कुछ नही.....
पता नहीं क्या है ये सब.......!!

8 comments:

P.N. Subramanian said...

लेख में भटकने के बाद हमें एक गीत याद आ गया "मोरा मन बड़ा पापी सांवरिया रे". मन के भटकने में भी कभी कभी बड़ा आनंद मिलता है.

अनिल कान्त said...

आपने अपने विचारों और दिल को बहुत खूबसूरती से रखा है ...मुझे अच्छा लगा

मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

संध्या आर्य said...

अगली बार जब मिलोगे तो वहीं मिलना......ब्रह्मांड के किसी और कोने में....जहां से मुझे.....हम दोनों का एक ही सिरा मिलेगा.....जिसे मैं वहीं छोड़ आयी......क्या ये सिर्फ एक संयोग.......एक सपना......एक इत्तेफाक,एक ऐसा कुछ....जैसा तुम चाहते......किसी सिरे को छोड़कर आगे भागते......मेरा सिरा......मुझे ही उलझाता और अपलक तुम्हे निहारता......आगे जाते तुम्हें एक झंझावात की तरह गोल-गोल गुजरते देखता.......पर तुम्हें नहीं पता........उस झंझावात में, मैं कहां उड़ती........कहां तक जाती और...और कुछ नही.....
पता नहीं क्या है ये सब.......!!

आपने बहुत ही खुबसूरती से मन के नाजुक एहसासो को उकेरा है जिसमे द्वन्द भी है पर वह प्यार के गहराई को पुरी तरह से बताने मे सक्छ्म हो पाया है यह सिर्फ आप ही कर सकती थी!

रंजू भाटिया said...

बहुत सुन्दर .खूबसूरती से आपने हर भाव को अभिव्यक्त किया है ..दिल कहीं खो सा गया इन लम्हों को पढने में ..शुक्रिया

मोना परसाई said...

शहर की तल्ख ज़िंदगी से दूर...उस आशनायी में बसती.....मासूम चिड़िया के पंखो जैसी शान्ति को देखा...
khubsurt ahsas ....ghre bhut ghre bhedte huye.

Udan Tashtari said...

बहुत खुबसूरत अभिव्यक्ति!!

डॉ .अनुराग said...

स्वर्ग जैसे पहाड़ शफ्फाक नीला आसमान........जहां मैं कुछ अपना छोड़ आयी थी.....थोड़ा सा अपना और तुम्हारे हिस्से का आसमान...वो बर्फ....वो डोज़र....ऊपर से दिखती खाई........और अब खाई में उगा हुए ठूंठ की तरह मेरे दुखो का एक और पहाड़...वो चमकीली ऱौशनी..... कुछ उस तरह की जो फुजीकलर फिल्मों में दिखती........ जैसे सब कुछ........मेरी यादों में कैद हर एक लम्हे पर कोई चमकीला सुनहरा सा हाईलाईटर चलता जैसे........नीली-सफेद खूबसूरत पहाड़ियों के बीच तैरती मेरी हसरतों की पतंगे.......सबकुछ एक सपना बनकर रह गया........एक सुनहरा चमकीला सपना....भला सा सपना..







हर शब्द हर पंक्ति कितने अहसास कितने अर्थ लिए बैठी है.....पूरी पोस्ट किसी कोलाज़ की माफिक है......रंग बिरंगे रंग से छितरी उदासी.....जैसे कोई अपना अस्तित्व ढूंढ रहा हो.......

admin said...

बहुत खूब।

लम्‍बी कविता भी इतनी प्रभावी हो सकती है, यह पहली बार देखा।

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SBAI TSALIIM