मेरे आस-पास......चारों तरफ छिटकी सी........एक सुनहरी धूप.......जिसके साथ-साथ चलती मखमली घास की दूर तलक फैली एक चादर......जहां से पूरी धरती अपने हरे आंचल और एक हरी सी अंगड़ाई का एहसास कराती............उसी मखमली घास के गलीचे पर पांव से अठखेलियां करती और उन्हें चूमती........गुलाबी ओंस....तुम्हारे प्यार का एहसास दिलाती....ठंडी-ठंडी ओस......
एक ऊर्जा देती और हर वक्त धौंकनी की तरह.....मेरे सीने में चलती....और जलती....तुम्हारी याद........सहारा बनती.......ईमानदारी से......इन सांसों का .....इस जीवन का....तुम्हारी याद......कुछ यादों में.......कुछ......मेरी नसों में बहता सा....तुम्हारी याद की तरह.....एक नशे जैसा एहसास.......सबकुछ घूमता सा दिखता...चक्कर,गोल-गोल चक्कर........ऐसा जैसा मानों ....सब खत्म.....मैं भी......मेरा सपना भी.......
एक कसमसाहट की तरह....उमगती मेरी इच्छा......नसों में....मेरी शिराओं में उबलता और उफनता वो लाल रंग.......तुम्हें देखने और तुमसे मिलने की बेकरारी बढ़ाती ये बयार.......कभी-कभी जलाती और मुझे शान्त करने की पुरज़ोर कोशिश करती इसकी मद्धम और सुरीली चाल..........औऱ दूर क्षितिज तक नज़र आने वाला ये आसमां..........इन जलती आंखो को हमेशा की तरह सुकून देने की कोशिश करता.......थोड़ा नीला सा आसमां........थोड़ा सा धूसर भी...शायद मुझे दिखता धूसर सा.....मेरे आंसुओं से परे......रुई के फाहों को अपने संग उड़ाता चलता.....जैसे मेरा सपना भी उड़ता .....तुम भी उड़ते....मैं भी उड़ती.....इन रुई के फाहों की तरह
अरे हां......हरी मखमली घास पर अठखेलियां करता नज़र आता वो गुबरैला....... अपनी मदमस्त चाल में चलता......अपने में ही जूझता औऱ घूमता.........ये प्यारा सा गुबरैला.....कभी मुझपर तो कभी घास की इस पत्ती के ऊपर तो कभी नीचे........छुपता मानों सबसे....... हां......ये मेरी तरह नहीं.......इसे नहीं चाहिए कुछ भी.......कितना शांत....सारी दुनिया बेचैन.....मगर ये शान्त.....समझ से परे
अरे....नज़र भर देख लेने को मन मचलता उस बिजूके को भी......खड़ा बस एक ही दिशा मे देखते......शायद लगता.........मेरी तरह.........उसी राहे-गुज़र के इंतज़ार में........बांहे फैलाएं.......चिरप्रतिक्षारत........कभी तो बरसेगा..........कभी तो आएगा.........ये बांहे फैलाएं............ऐसे ही इंतज़ार ............कभी तो होगा........ये दर्द थोड़ा कम.........थोड़ा हल्का.....थोड़ा मद्धम
ना......ना मत कहना
ये नदी कहती है.........चंचल....शोख.......तुम्हारी नदी.....कहती हैं.......वहीं से आरही है.......जिसके मुहाने तुम मछली पकड़ते हो.......इसके आंचल में उतराते हो.........धूप में........लहरों के बीच.......उसी गांव से.........उसी पहाड़ी से....जहां मुझे जाना है........तुम्हारे साथ.........इसी नीले-नीले आसमां के साथ..........इसी हरी घास के साथ........इसी बिजूके के साथ.........थक गया इंतज़ार में..........मेरे साथ जाएगा.........चिरप्रतिक्षारत आराम चाहिए........मन करता......सुनहरी चिड़िया बनने का...हवा में उड़ने का.......तुम तक पहुंचने.......अपनी चोंच से तुम्हारे होंठो का नफीस स्वाद लेने का.....तुम्हें खुश होते देखने का.......अपने परों को फड़फड़ाने का.....तुम्हारे ऊपर उनसे बरसात करने का इस पूरी दुनिया की नियामतों की........
एक पहाड़ी.....एक नदी.....एक मैदान.......एक आसमां...........एक घर.........एक शाम और एक-जान
बस मेरा सपना.................
5 comments:
आपकी आकांक्षा ...आपका सपना ....मन के भावों की लाजवाब अभिव्यक्ति .....सचमुच बहुत अच्छी
अनिल कान्त
मेरा अपना जहान
एक पहाड़ी.....एक नदी.....एक मैदान.......एक आसमां...........एक घर.........एक शाम और एक-जान
बस मेरा सपना................. बहुत सुंदर लिखा.....बहुत अच्छा सपना।
बेहतरीन सपना-एकदम पोयटिक.
सुन्दर ब्लॉग...सुन्दर रचना...बधाई !!
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60 वें गणतंत्र दिवस के पावन-पर्व पर आपको ढेरों शुभकामनायें !! ''शब्द-शिखर'' पर ''लोक चेतना में स्वाधीनता की लय" के माध्यम से इसे महसूस करें और अपनी राय दें !!!
nice thoughts.......
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